अमोल गुप्ते
लेखक, निदर्ेशक, अभिनेता
(हाल ही में फिल्म स्टैनली का डब्बा को बेहतरीन सराहना मिली है)
मैं 70 से 80 के दौर की बात कर रहा हूं. उस वक्त जिन जिन विषयों पर फिल्में बन रही थीं. इन फिल्मों में समांनातर रूप से ऐसी भी कई फिल्में बन रही थीं, जो बच्चों पर आधारित थी. ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्में व रजनीगंधा जैसी फिल्मों में खूबसूरती से पारिवारिक मुद्दों को दर्शाया जाता था.ऐसा नहीं था कि उस दौर में सिर्फ बच्चों के लिए फिल्में बनती थीं. लेकिन इसके बावजूद बच्चे महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले किरदार में नजर आते थे. फिर चाहे वह एक छोटे से बच्चे का किरदार हो, या फिर किसी और रूप में. राजकपूर की फिल्मों में भी बच्चों को महत्व दिया जाता था. उस दौर में बाल ब्रह्मचारी, कुंवारा बाप जैसी फिल्मों के विषयों ने बच्चों की संवेदनशीलता को खूबसूरती से दर्शाया था. बाद के दौर में मिस्टर इंडिया भी बनी, जिसमें अनाथ बच्चों के मसीहा की कहानी है. लेकिन धीरे धीरे बच्चों की कहानी कहने में हम हिचकने लगे. वजह मल्टीप्लेक्स. हम 300 रुपये खर्च करके हम बच्चों से संबंधित कुछ संवेदनशील मुद्दों को नहीं देखना चाहते. चूंकि हमें बचपन से ही यह सिखा दिया गया है कि सिनेमा का मतलब है मनोरंजन. तो यह सच है कि जब हम भारतीय दर्शक सिनेमा हॉल में जाते हैं और हमें हमारे मनोरंजन के अनुसार फिल्म के विषय नजर नहीं आते. हम उन फिल्मों को नकार देते हैं. इसमें दोष सिर्फ बनानेवाले फिल्मकारों का ही नहीं, दर्शक का भी है. अगर वे अच्छी चीजों की डिमांड करेंगे तो उन्हें अच्छी चीजें मिलेंगी. जब सामने अच्छे आम होते हैं तभी हम बुरी चीज का फर्क कर पातें. लेकिन अगर सारे आम सड़े हों और यह मजबूरी है कि हमें कुछ खरीदना ही है तो हमें फिर उसी से काम चलाना होगा. इसलिए मेरे ख्याल से बच्चों के विषयों पर फिल्में बननी ही चाहिए. क्योंकि बच्चे एक महत्वपूर्ण विषय हैं. उनका बचपन ही उनका भविष्य तय करता है. एक महत्वपूर्ण बात जो हम भारतीय ध्यान नहीं देते वह है हमारा सेल्फ रिस्पेक्ट( आत्म-सम्मान). बच्चों में अपना एक आत्म सम्मान होता है. जिसकी हमें कद्र करनी चाहिए. हम आज भी तीसरी दुनिया के देश इसलिए हैं, क्योंकि हमें अपने नागरिकों को सम्मान देना नहीं आता. यूरोप इसलिए विकसित है और हमेशा सफल होगा,चूंकि वह अपने नागरिकों को हद से ज्यादा सम्मान देता है. मैं मानता हूं कि अगर बचपन से ही बच्चों को अच्छी फिल्मों से जोड़ा जाये. तो बड़े होकर वे निश्चित तौर पर अच्छी फिल्मों की मांग करेंगे. मेरा मानना है कि 6 या 7 कक्षा से बच्चों के पाठ्यक्रम में सिनेमा को भी जोड़ा जाना चाहिए, इससे यह होगा कि वे उन अच्छी फिल्मों से वाकिफ हो पायेंगे. यह स्पष्ट है कि जिस दिन हमारे देश के फिल्मकारों और निर्माताओं को इस बात का एहसास हो जायेगा कि बच्चों की फिल्मों की जरूरत है और इसके उपभोगता भी हैं, तो जाहिर है कि फिल्में चलेंगी ही. मुझे आश्चर्य उस वक्त भी होता है जब मैं सुनता हूं कि बच्चों की फिल्मों के दर्शक नहीं. जबकि मेरी बनाई गयी फिल्म भोपाल के थियेटरों में नहीं लगी थी. लेकिन लोग जब लौट लौट कर टिकट खिड़की से जाने लगे तो ड्रिस्ट्रीब्यूटर को लगा कि फिल्म लगानी चाहिए. दूसरी तरफ आप देखें कि क्या फिल्म तारें जमीं पर एक मनोरंजक फिल्म थी, नहीं न. बेहद संवेदनशील मुद्दा उठाया गया था. उसमें.इसके बावजूद कैसे फिल्म ने 100 करोड़ का बिजनेस किया. अगर फिल्म के दर्शक हैं ही नहीं तो. दुख तो इस बात का है कि भारत में लोकतांत्रिक देश होने के बावजूद ऐसे विषयों पर फिल्में बनाने की इच्छा लोग जाहिर नहीं करते.जबकि ईरान की प्रशासन प्रणाली अलग है. फिर भी वहां अच्छा काम हो रहा है. साथ ही रूस, जर्मनी, चेकोसलवाकिया, कोरिया की फिल्मों में बच्चों की कहानियां कही जा रही हैं. मैं यह नहीं कहता कि बच्चों के विषयों पर ही फिल्में बने. लेकिन किसी रूप में तो बाल कलाकारों को मौके दिये जायें. लेकिन हमारा सिनेमा अब पूरी तरह प्रोपोजल मेकिंग बन चुका है. फिर ऐसे में इसमें समाज कैसे नजर आयेगा. भारत में अब भी तमिल, मलायम और खासतौर से बांग्ला फिल्मों में बच्चों के लिए फिल्में बनाई जाती हैं. हमारे देश में हम बड़ों को ही बच्चों को समझाना होगा कि बच्चों की फिल्मों का मतलब सिर्फ एनिमेशन या कार्टून फिल्में नहीं. अगर हंप्टी डंप्टी जैसी कविताओं को हम आज भी बच्चों को चुटकुलों के रूप में सिखाते हैं. जबकि हमें यह बच्चों को बताना होगा कि यह भी एक पॉलिटिकल सटायर है. बच्चों के लिए बचकाना फिल्में बनाना हमें बंद करना होगा. मैंने जब फिल्म तारें जमीं पर लिखी थी. तो मैंने इसे किसी जल्दबाजी में नहीं लिखा था. वक्त लगा था. मैंने रिसर्च किया था. ऐसे बच्चों के साथ वक्त गुजारा था. दरअसल,यह भी एक वजह है कि ऐसी फिल्में नहीं बनती, क्योंकि ऐसी फिल्में बहुत वक्त की डिमांड करती है. और हम फिल्मकार जल्दी जल्दी फिल्में बना कर पैसे कमाने की धुन में होते हैं. मुझे याद है जब मैं एफटीआइआइ में था. वहां बोधी वृक्ष के नीचे बैठ कर ऐसे विषयों पर सोचा करता था.अगर बच्चों को वोट देने का अधिकार 18 साल के बाद मिल रहा है. तो यह जरूरी नहीं कि उन्हें बाकी चीजें भी 18 के बाद ही मिले. जिस दिन हमारे देश ने बच्चों को और अपने नागरिकों को अपना वेल्थ समझ लिया न. हम आगे बढ़ जायेंगे. आप हरीशचंद्र फैक्ट्री देखिए. वह बच्चों की फिल्म नहीं, लेकिन फिर भी कितनी खूबसूरती से बाल कलाकार को दर्शाया गया है फिल्म में. मैं मानता हूं कि सिर्फ फिल्मकार नहीं, हम दर्शकों को भी आगे आना होगा. दर्शक और निदर्ेशक के बीच की दूरियां तभी कम होगी. जब वे उन सड़े आम को मजबूरीवश लेना छोड़ देंगे और फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन नहीं समाज का आइना दिखानेवाला अहम हिस्सा समझने लगेंगे. वरना सिर्फ मेरे जैसे कुछेक लोग प्रयास भर ही कर पायेंगे. सफलता मिले. बच्चों की फिल्मों को बढ़ावा मिले. इसके लिए जरूरी है कि हम सभी, सरकार सभी इस पर गंभीरता से सोचें. और व्यवहारिक रूप से इस पर काम किया जाये.
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