20110823

फिल्मों में प्रयोगों के बहुमूल्य मणि(रत्न) रहे मणि कौल


(बासु चटर्जी, फिल्म निदर्ेशक मणि कौल के फिल्मों का गंभीर रूप से अध्ययन समझ रखनेवाले. )

मणि कॉल फिल्मकारों के फिल्मकार थे. वे जितने उम्दा फिल्मकार थे. उसकी खास वजह यह थी कि वह जिंदगी को दार्शनिक तरीके से देखते थे. और यही वजह है कि उनकी फिल्मों में जिंदगी की फिलॉसपी नजर आयी है. उन्होंने दर्शन और काव्यशास्त्र को ही भारतीय सिनेमा में दर्शाने की कोशिश की. अरस्तू और प्लेटो की दार्शनिक पध्दतियों पर आधारित विश्व सिनेमा को भी उन्होंने जनमानस तक पहुंचाया. लेकिन इसके बावजूद यह बेहद दुख की बात है कि हममे से कई लोग उन्हें या उनके काम को जानते नहीं. आज भी हम उन्हें तब याद कर रहे हैं या कहीं कहीं उनके काम की चर्चा उस वक्त हो रही है, जब वह हमारे बीच है ही नहीं. जबकि सच्चाई यह है कि सिनेमा को एक वैज्ञानिक सोच देने में भी मणि कॉल का जवाब नहीं था. उनके काम के बारे में जब जब चर्चा हुई है. लोगों ने यही माना है कि उनकी फिल्में सिर्फ एलिट लोगों को ही समझ आयेगी. इसकी खास वजह यह रही है कि शुरुआती दौर से लेकर अब तक हमारे देश में सिनेमा को मनोरंजन माना जाता रहा है. और जो व्यक्ति सिनेमा को मनोरंजन से परे किसी और रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश करता है. उसे अचानक ही लोग किसी श्रेणी में बांट देते हैं और यह मान बैठते हैं कि उनकी फिल्में सिर्फ उन्हें ही या किसी खास वर्ग को समझ में आयेगी और ऐसी फिल्में बनानेवाले को जबरन (मास) से अलग कर दिया जाता है. जबकि मेरा मानना है कि मणि कौल की फिल्मों ने हिंदी सिनेमा में कई रूप से दशा और दिशा दिखाई है. उनके किसी इंटरव्यू में मैंने पढ़ा था कि वह मुंबई आये थे अभिनेता बनने के लिए. उनके चाचा मुंबई में फिल्म निदर्ेशक थे. महेश कॉल नाम था उनका. उनके निवेदन पर ही उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में आने की रजामंदी मिली. उनकी सलाह पर ही उन्होंने पुणे के फिल्म स्कूल में समय बिताया. उन्होंने अपनी बातचीत में बताया था कि उन्होंने जब रॉबर्ट ब्रेसो की पिकपॉकेट देखी तो उसने उनका नजरिया बदल दिया था. उसके बाद वह बस ब्रेसो में ही रम गयी. उनकी सोच व नजरिये का ही यह नतीजा था कि उन्होंने अपनी शुरुआत फिल्म इंडस्ट्री में डॉक्यूमेंट्री बनाने से की थी. इसके बाद कई वर्षों के बाद उन्होंने वर्ष 1968 में पहली फीचर फिल्म बनायी. उनकी फिल्मों की खास बात मुझे यह लगी कि फिल्मों में वह थियेटर, गीत-संगीत और गीतों का भरपूर इस्तेमाल करते थे. जिसका कम से कम अब की फिल्मों में तो जरा भी इस्तेमाल नहीं होता. उनकी फिल्मों की खासियत यह रही कि गंभीर होने के बावजूद उन्होंने दर्शकों से ताल बिठा कर रखने की कोशिश की. एक बार किसी प्रेस वार्ता के दौरान उन्होंने कहा था कि आज भी फिल्मों के निर्माण का भूगोल नहीं बदला है. कुल 25 राज्यों में आधे से अधिक फिल्में बन रही हैं. हिंदी फिल्मों का स्थान तीसरा है. लेकिन स्तर देखें तो उसमें काफी फर्क आया है. मणि इस बार पर हमेशा असंतोष जताते थे कि हम दूसरों की नकल कर रहे हैं. वे इस बात को एक बड़े खतरे के रूप में देखते थे कि भारतीय भाषाओं में अमेरिकी फिल्में डब कर क्यों दिखायी जाती हैं. इस वजह से भी हमारा हिंदी सिनेमा जगत कमजोर होता जा रहा है. उन्होंने हमेशा इस बात को उजागर करने की कोशिश की है कि भारतीय सिनेमा अपनी पहचान दरअसल खोता जा रहा है. उनका मानना था कि हमारे पास बहुत कुछ है जिसे हम अपने सिनेमा में दिखा कर वास्तविकता प्रदान कर सकते हैं. लेकिन हम ऐसा कर नहीं रहे. मणि ने अपनी पहली फिल्म से ही अपनी अलग सोच को जाहिर कर दिया था. उसकी रोटी उनकी पहली फिल्म थी. जो मोहन राकेश की कहानियों पर आधारित थी. उनकी फिल्मों की खास वजह यह भी रही कि उन्होंने अपनी फिल्मों में कल्पना के आधार पर कई खूबसूरत सिंबल का इस्तेमाल किया है. उन्होंने भारत की कलाकृतियों को भी खूबसूरत तरीके से लोगों तक पहुंचाया है. अपनी फिल्मों के माध्यम से. उन्होंने जब जब जिस भी माध्यम से मुनासिब समझा. मुमकिन हो सका. गीत संगीत का इस्तेमाल किया. सच कहूं तो उनकी फिल्में देख कर यही महसूस होता था कि वे लघु कहानियां जो किताबों में हैं वह अचानक उनकी फिल्मों के माध्यम से उठ कर चलने लगती हैं. एक बात और गौर करने की थी कि उन्होंने अपनी हर फिल्म में अपना अलग विजन शो करने की कोशिश की. उनकी फिल्म दुविधा उसकी रोटी से बिल्कुल अलग थी. उन्होंने दुविधा में मानवशास्त्रीय मुद्दों को उजागर करने की कोशिश की थी. उनकी कोशिश होती थी कि वह अपने दर्शकों को अपनी फिल्मों से वर्तमान में या इतिहास के सामाजिक-राजनीतिक आर्थिक रूप की स्थिति की जानकारी दे सकें. अगर उनकी फिल्म सत्ते से उठा आदमी की बात करें तो उन्होंने एक बेहतरीन फिल्म बनायी. उन्होंने फिल्म में सूत्रधार की भूमिका जोड़ी. कह सकते हैं कि उसी वक्त से फिल्मों में सूत्रधार का प्रचलन शुरू हो गया. उन्होंने सिर्फ फीचर फिल्म. बल्कि डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के माध्यम से भी कई महत्वपूर्ण काम किये. उनमें धु्रपद प्रमुख हैं. कहना होगा कि

उनका कार्य एक इनसाइक्लोपीडिया की तरह है, जिसमें जीवन का रोमांच भी रस भी है. मणि उन भारतीय फिल्मकारों में से एक हैं, जिनका काम सत्यजीत रे की तरह वर्ल्ड सिनेमा में हमेशा याद किया जाता रहेगा. उनके काम की चर्चा होती रहेगी. चूंकि सच्चाई भी है. संकेत भी है और साथ ही एक सामाजिक-राजनैतिक चेतना भी. अपने नाम की तरह ही वे फिल्मों में महत्वपूर्ण रत्न के रूप में हमेशा यााद आते रहेंगे.

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