मैं मानता हूं साहित्य और सिनेमा का मेल कभी अलग नहीं किया जा सकता. अगर मुझे कोई मौका दे दे तो मैं साहित्य पर आधारित बेहतरीन फिल्में बना दूंगा. मैं नहीं मानता कि साहित्य से जुडने के लिए किसी उम्र की बाधा होती है. आप कभी भी इससे जुड सकते हैं. मेरा मानना है कि हिंदी सिनेमा को हमेशा साहित्य से जुडे रहना चाहिए. ताकि हमारी संस्कृति बरकरार रहे. साहित्य के माध्यम से एक खास संस्कृति को जानने का मौका मिलता है. फिर चाहे वह किसी भी देश के लेखक हो. साहित्य और सिनेमा में सामंजस्य तभी बन सकता है जब आप गउसे बोझ के रूप में देखना बंद करेंगे. अक्सर ऐसा होता है कि लोग सोच लेते हैं कि साहित्य पर आधारित सिनेमा है तो वह उबाऊ होगा. फिर उसे किसी निर्धारित वर्ग की फिल्म घोषित कर दिया जाता है. जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए. स्कूल कॉलेज के दौरान मुझे साहित्य से ज्यादा क्रिकेट लुभाता था. मैं पूरी तरह से एक आम लड़का था. जो अमिताभ बच्चन की मसाला फिल्में पसंद करता था. मैं कालीचरण, अमर अकबर एंथोनी जैसी फिल्मों को देखकर बडा हुआ हूं लेकिन जब मैं मुंबई आया और गुलजार साहब के साथ काम करने का मौका मिला तो मेरी सोच में थोड़ा बहुत बदलाव आया. उनकी फिल्म अंगूर जो उपन्यास कामेडी आफ एरर पर आधारित है. मुझे बहुत पसंद आयी थी लेकिन उस वक्त भी साहित्य को पढ़ने की मेरी रूचि नहीं जगी. मैं अचानक ही साहित्य की ओर मुड़ गया. मुझे याद है जब मैं संगीतकार से बतौर निदर्ेशक अपनी शुरूआत करने जा रहा था. मैंने पढ़ना शुरू कर दिया था लेकिन साहित्य से मेरा दूर दूर तक कोई लेना- देना नहीं था. मैं तो डायरेक्शन और स्क्रीनप्ले राइटिंग के बारें में पढता था. उसी दौरान यात्रा करते हुए अचानक एक बच्चें के हाथ में मैंने कापी आफ द शेक्सपीयर टेल देखी. मैंने उससे वह किताब देखने के लिए मांगी. सफर लंबा था इसलिए मैंने समय कटाने के लिए एक कहानी पढने का मन बनाया.उस किताब की पहली कहानी मैकबेथ की थी. वो कहानी पढकर मैं मंत्रमुग्ध हो गया. मुझे वह ड्रामाटिक कहानी इतनी पसंद आयी कि मैंने उसी वक्त यह निश्चय कर लिया कि मैं अपनी पहली फिल्म इसी कहानी पर बनाऊंगा. सिर्फ मैकबेथ पढ़ने के बाद ही मेरा मन शेक्सपियर के लिए एक अळग ही सम्मान से भर आया. जिसके बाद एक के बाद एक मैंने शेक्सपीयर के सारे नाटक पढ़ डाले. उनके नाटक उनकी कहानियां मुझमे एक अलग ही उर्जा का संचार करते हैं. शेक्सपीयर की कृतियों को पढते हुए मेरे मन में पहले दिन से आज तक यही बात आयी है कि मैं अपनी पूरी जिंदगी इनके नाटको पर फिल्में बना कर निकाल सकता हूं. शेक्सपीयर की खासियत यह है कि अगर आप थोड़े भी इंटेलिजेंट हो तो उनकी कहानियों को आप बेहतरीन ढंग से परदे पर उतार सकते हो. साहित्य से मेरा परिचय शेक्सपीयर के नाटकों ने ही किया था इसलिए शेक्सपीयर के नाटकों पर फिल्म बनाते हुए मैं इतना खो जाता हूं कि मुझे लगता है कि चार सौ साल पहले मैंने ही यह नाटक लिखा था इसलिए मैं अपने तरीके से कहानी को प्रस्तुत करने लगता हूं. हां मैं उस नाटक की मूल आत्मा से खिलवाड़ नहीं करता हूं लेकिन उसे मौजूदा दौर के हिसाब से जरूर प्रस्तुत करता हूं. सभी को लगता है कि साहित्य बोरिंग होता है लेकिन शेक्सपीयर की कृति को पढ़ने के बाद मुझे लगता है कि कोई भी ऐसा नहीं कह सकता है. शेक्सपीयर की कृतियां बहुत ज्यादा ही इंटरटेंनिग, डिप हयूमन नेचर को प्रस्तुत करती है.जो काबिले तारीफ है. अक्सर सुनने में आता है कि मैं हमेशा अंग्रेजी साहित्य की ओर रूझान क्यों हो रहा है. शेक्सपीयर के बाद रस्किन बांड की कहानियां मुझे अपनी फिल्मों के लिए प्रभावित करती रही है.हालिया रिलीज हुई मेरी फिल्म सात खून माफ रस्किन बांड की कहानी सुजैनास सेवन हसबैंड पर आधारित थी. मुझे लगता है संगीत, साहित्य और सिनेमा में कभी भी भेदभाव नहीं करना चाहिए.वैसे मैं रस्किन बांड के लेखन को कभी भी विदेशी नहीं मानता हूं. उनका जन्म हो या परवरिश सभी कुछ भारत में ही हुई है. उनकी भाषा भले ही अग्रेंजी है लेकिन उनकी कहानियों के जो किरदार हैं. वह हमारे देश के ही किरदार है. वैसे अब अंग्रेजी भी हमारी ही भाषा बन चुकी है सो इसे मैं हिंदुस्तानी साहित्य का दर्जा देना चाहूंगा. साहित्य चाहे अंग्रेजी हो या हिंदी वह मानव मनोभावों का बहुत ही सुंदर और सजीव चित्रण करता है. शेक्सपीयर और रस्किन का ज्यादा से ज्यादा फालो करने की यही वजह है. मैं अपनी फिल्मों की कहानियों को विषम परिस्िथितयों में देखना चाहता हूं (हंसते हुए) मुझे सीदी -साधी कहानियां पसंद नहीं है और मुझे कहानियों में इतने सारे लेयर इनके साहित्य से ही मिलता है. मैं यहां सुजैनास सेवन हसबैंड का उदाहरण देना चाहूंगा. वह सिर्फ चार पन्नों की छोटी सी कहानी थी. जब मैंने वह कहानी पढ़ी तो मुझे लगा कि वह 400 पेजेस में तब्दील हो सकती है. स्पेशली रस्किन साहब ने जिस तरह अपनी मास्टरी से 10 साल की कहानी को एक पेज में समेटा था. वह कमाल का था. सो मैंने उनसे संपर्क किया और उनसे इस पर फिल्म बनाने की इच्छा जाहिर करते हुए इसे उपन्यास में ढालने को कहा क्योंकि यह उनकी कहानी उनके किरदार थे जो वे बेहद खूबसूरती से आगे बढा सकते थे. मुझे खुशी है कि उन्होंने मेरी बात मानी. मजे की बात यह है कि वे अब भी टाइपराइटर की बजाए हाथ से लिखते हैं. वह मुझे ओरिजिनल भेजकर झेराक्स खुद रखते थे.यकीन कीजिए उनकी हाथों से लिखी कहानी को पढ़कर मुझे लगता कि मैं उनका एकमात्र पाठक हूं. जो उन्हें पढ रहा हूं. शेक्सपीयर ने मुझे पूरी तरह से साहित्य से जोड़ दिया है. अब मैं हर तरह का साहित्य पढ़ रहा हूं. चाहे पुराने रचानकार हो या नये. शेक्सपीयर की सभी कृतियों के अलावा शरद जोशी की किताब मुद्रिका रहस्य पर फिल्म बनाने की मेरी दिल्ली ख्वाहिश है.
(मकबूल, ओंकारा, ब्लू अब्रेला, कमीने और सात खून माफ जैसी फिल्मों का निदर्ेशन कर चुके फिल्मकार विशाल भारद्वाज की प्रेरणा शुरू से ही साहित्य रहा है. उनकी अधिकतर फिल्में साहित्यिक कृतियों पर आधारित रही है फिर चाहे वह शेक्सपीयर के नाटक मैकबेथ पर बनी मकबूल हो या ओथेलो पर आधारित ओंकारा. साहित्यकार रस्किन बांड की किताब ब्लू अंब्रेला पर भी वे फिल्म बना चुके हैं. हालिया रिलीज उनकी फिल्म सात खून माफ भी रस्किन बांड की लघु कहानी सुजैनास सेवन हसबैंड पर आधारित थी.)
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