न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में रिश्तों पर आधारित फिल्मों को अहमियत दी जा रही है और दर्शकों द्वारा उन्हें सराहना भी मिल रही है. फिर चाहे वह उलझे, विवादित रिश्ते ही क्यों न हो, उन रिश्तों की बारीकियों को खंगालने की कोशिश विभिन्न फिल्मों द्वारा जारी है. हाल ही संपन्न हुए मामी फिल्मोत्सव में कुछ ऐसे ही विषयों पर बनी फिल्मों को बेहद सराहना मिली.
हिंदी सिनेमा में सदियों से रिश्तों पर आधारित कहानियां गढ़ी जाती रही हैं. खासतौर से 30 से 60 के दशक तक में रिश्तों की कहानियों को अहमियत दिया जाता रहा है. लेकिन पिछले कुछ सालों से हिंदी सिनेमा ने भी कुछ बोल्ड कदम उठाये हैं और अब वे उन रिश्तों की कहानियों को भी दर्शकों के समक्ष रखने लगे हैं, जो बेहद उलझे भी होते हैं. अनुराग कश्यप की फिल्म दैट गर्ल इन यल्लो बुट्ट ऐसी ही फिल्मों में से एक हैं. पिछले कुछ सालों में हिंदी सिनेमा में समलैंगिकता के आधार पर बनी फिल्मों को भी सराहना मिली है. दरअसल, अब धीरे धीरे हिंदी सिनेमा के फिल्ममेकर को भी यह बात समझ में आ चुकी है कि सिनेमा में केवल शादी व्याह, प्रेम कहानियों के रिश्तों पर आधारित फिल्में दिखाना ही सही तरीके से रिश्तों पर आधारित कहानियों का मूल्यांकन नहीं है. शायद यही वजह रही कि हाल ही संपन्न हुए मामी फिल्मोत्सव में उन सभी कहानियों को सराहना मिली, जिनमें कई अलग तरह के रिश्तों पर आधारित कहानियां थीं. इन फिल्मों से जुड़े किरदार, उनकी कहानियां व उनके अभिनय से दर्शकों का मन मोह लिया. फिल्म देखने के बाद अधिकतर दर्शकों की यही विचार निकल कर सामने आया कि भारत में भी अब बोल्ड कहानियों पर फिल्में बनें और उन पर किसी भी सेंसर बोर्ड को आपत्ति न हो. चूंकि सच्चाई यही है कि पूरे विश्व में हर तरह के रिश्तों से जुड़ी कहानियों को दर्शाया जा रहा है. चूंकि यह फिल्में उस समाज का आईना दिखाती हैं. दर्शाती हैं कि वहां के परिवार किस तरह रहते हैं. उनकी मानसिकता कैसी है. उनके विचार कैसे हैं. मामी फिल्मोत्सव में दिखाई गयी फिल्में डिस्टेंस, लवली मैन, लिटिल प्रीसेंस, माउंटेन, मीटिंग, टॉमब्वॉय ऐसी ही फिल्मों में से एक रहीं, जिनमें कई अलग तरह की कहानियों को दर्शाने की कोशिश की गयी. इन फिल्मों ने दर्शकों को न सिर्फ भावुक कर दिया, बल्कि उन्हें यह सोचने पर भी मजबूर किया कि हमारे भारत के हर कोने में ऐसी कहानियां हैं, जिन्हें हमें सिनेमा के माध्यम से उजागर करना चाहिए. लेकिन हम आज भी किसी हिचक के कारण, झिझक के कारण उन फिल्मों को दर्शकों तक पहुंचा नहीं पा रहे. क्योंकि हम वह बोल्ड कदम नहीं उठा पा रहे.
रिश्तों की उलझन और खूबसूरती को प्रस्तुत करती कहानियां
फिल्म डिस्टेंस में पिता और बेटी के बीच की अदभुत कहानी दर्शायी गयी है. दोनों 20सालों से नहीं मिले. चूंकि वह पिता अपनी बेटी से एक दंगे के कारण बिछुड़ जाता है. लेकिन फिर जब वे दोनों 20 सालों बाद मिलते हैं तो दोनों एक दूसरे की भाषा नहीं समझ पाते. दोनों के बीच 20 अंगूली का भी फासला नहीं. लेकिन दोनों एक दूसरे से कोसो दूर हैं. पिता बेटी को बेटी कहकर बुला सकता है और लड़की अपने पिता को सिर्फ पापा कह कर बुला सकती है. इससे अधिक वे दोनों एक दूसरे की भाषा समझ पाने में असमर्थ हैं. फिल्म का नाम इसलिए डिस्टेंस हैं. वही दूसरी फिल्म लवली मैन में भी एक पिता और बेटी के रिश्ते की कहानी है. बेटी अपने पिता की खोज में आती है. उसे अपना पिता मिलता है. लेकिन वह एक समलैंगिक पुरुष बन चुका है. पिता बेटी को समझाता है कि वह लौट जाये. लेकिन बेटी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता. वह बस इथना चाहती है कि वह अपने पिता को जान पाये. उससे पूछ पाये कि वे उसे छोड़ कर क्यों आ गये. बावजूद इसके कि उस पिता की जिंदगी अब पूरी तरह बदल चुकी है. वह अपनी बेटी का पूरी तरह ख्याल रखता है. एक रात के लिए. एक अच्छे पिता की तरह. दूसरे दिन वह बिछुड़ते हैं. और बेटी पिता से अलग होकर रोने लगती है. इस फिल्म में खासतौर से इस बात को दर्शाने की कोशिश की गयी है कि एक पिता भले ही गंदा काम करता हो. लेकिन अपने बच्चे के प्रति वह हर संभव प्रयास करता है कि वह अच्छा पिता बन कर दिखाये. फिल्म माउंटेन में दो महिलाओं के बीच के प्रेम को दर्शाया गया है. फिल्म लिटिल प्रीसेंस की कहानी भी बेहद मार्मिक है. वालेटा 10 साल की बच्ची है. वह अपनी सनकी मां का प्यार पाने के लिए कुछ भी करती है. यहां तक कि वह अपनी मां की यह शर्त भी मानने को तैयार हो जाती है कि वह छोटी सी उम्र में ग्लैमरस वर्ल्ड में हर तरह के काम करने को तैयार हो जाती है.फिल्म स्काइकिपर में 17 साल का जॉन अपनी शराबी मां और पिता के साथ रहता है. वह अपनी जिंदगी से तंग आ चुका है. तभी उसकी जिंदगी में एक लड़की आती है. वह अंधी है. लेकिन वह जॉन के प्यार की निगाह से पूरी दुनिया देखने की कोशिश करती है. फिल्म मीटिंग में एक महिला यात्री और उसके टैक्सी ड्राइवर के बीच की प्रेम कहानी को दर्शाया गया है. दोनों पूरे एक दिन साथ रहते हैं और दोनों में प्यार हो जाता है.
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
अनुराग कश्यप ः बोल्ड फिल्में बनाना कोई गंदा काम नहीं है
मामी फिल्मोत्सव में उपस्थित निदर्ेशक अनुराग कश्यप मानते हैं कि बोल्ड फिल्में बनाना कोई गंदा काम नहीं है. लेकिन भारत में कई लोग हैं, जो उन निदर्ेशकों को गलत निगाह से देखते हैं, जो बोल्ड फिल्में बनाते हैं. शायद यही वजह है कि हम भारत में उन रिश्तों पर आधारित कहानियों को सामने नहीं ला पाते.जो हमारे बीच की कहानी है. जो सच है. जो हो रहा है. हमें लगता है कि वैसी कहानियों को दिखाने से हम दर्शकों को किसी गलत काम के लिए भटका रहे हैं या साफ शब्दों में कहें तो उकसा रहे हैं. हिंदी सिनेमा में अब भी हम समलैंगिकता पर आधारित कहानियों को कहने से डरते हैं. लेकिन भारत से बाहर ऐसा नहीं है. हम ंनिदर्ेशकों में आज भी झिझक है. जबकि यह हमारे समाज का ही एक नजरिया प्रस्तुत करता है.
न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में रिश्तों पर आधारित फिल्मों को अहमियत दी जा रही है और दर्शकों द्वारा उन्हें सराहना भी मिल रही है. फिर चाहे वह उलझे, विवादित रिश्ते ही क्यों न हो, उन रिश्तों की बारीकियों को खंगालने की कोशिश विभिन्न फिल्मों द्वारा जारी है. हाल ही संपन्न हुए मामी फिल्मोत्सव में कुछ ऐसे ही विषयों पर बनी फिल्मों को बेहद सराहना मिली. अनुप्रिया अनंत की रिपोर्ट
हिंदी सिनेमा में सदियों से रिश्तों पर आधारित कहानियां गढ़ी जाती रही हैं. खासतौर से 30 से 60 के दशक तक में रिश्तों की कहानियों को अहमियत दिया जाता रहा है. लेकिन पिछले कुछ सालों से हिंदी सिनेमा ने भी कुछ बोल्ड कदम उठाये हैं और अब वे उन रिश्तों की कहानियों को भी दर्शकों के समक्ष रखने लगे हैं, जो बेहद उलझे भी होते हैं. अनुराग कश्यप की फिल्म दैट गर्ल इन यल्लो बुट्ट ऐसी ही फिल्मों में से एक हैं. पिछले कुछ सालों में हिंदी सिनेमा में समलैंगिकता के आधार पर बनी फिल्मों को भी सराहना मिली है. दरअसल, अब धीरे धीरे हिंदी सिनेमा के फिल्ममेकर को भी यह बात समझ में आ चुकी है कि सिनेमा में केवल शादी व्याह, प्रेम कहानियों के रिश्तों पर आधारित फिल्में दिखाना ही सही तरीके से रिश्तों पर आधारित कहानियों का मूल्यांकन नहीं है. शायद यही वजह रही कि हाल ही संपन्न हुए मामी फिल्मोत्सव में उन सभी कहानियों को सराहना मिली, जिनमें कई अलग तरह के रिश्तों पर आधारित कहानियां थीं. इन फिल्मों से जुड़े किरदार, उनकी कहानियां व उनके अभिनय से दर्शकों का मन मोह लिया. फिल्म देखने के बाद अधिकतर दर्शकों की यही विचार निकल कर सामने आया कि भारत में भी अब बोल्ड कहानियों पर फिल्में बनें और उन पर किसी भी सेंसर बोर्ड को आपत्ति न हो. चूंकि सच्चाई यही है कि पूरे विश्व में हर तरह के रिश्तों से जुड़ी कहानियों को दर्शाया जा रहा है. चूंकि यह फिल्में उस समाज का आईना दिखाती हैं. दर्शाती हैं कि वहां के परिवार किस तरह रहते हैं. उनकी मानसिकता कैसी है. उनके विचार कैसे हैं. मामी फिल्मोत्सव में दिखाई गयी फिल्में डिस्टेंस, लवली मैन, लिटिल प्रीसेंस, माउंटेन, मीटिंग, टॉमब्वॉय ऐसी ही फिल्मों में से एक रहीं, जिनमें कई अलग तरह की कहानियों को दर्शाने की कोशिश की गयी. इन फिल्मों ने दर्शकों को न सिर्फ भावुक कर दिया, बल्कि उन्हें यह सोचने पर भी मजबूर किया कि हमारे भारत के हर कोने में ऐसी कहानियां हैं, जिन्हें हमें सिनेमा के माध्यम से उजागर करना चाहिए. लेकिन हम आज भी किसी हिचक के कारण, झिझक के कारण उन फिल्मों को दर्शकों तक पहुंचा नहीं पा रहे. क्योंकि हम वह बोल्ड कदम नहीं उठा पा रहे.
रिश्तों की उलझन और खूबसूरती को प्रस्तुत करती कहानियां
फिल्म डिस्टेंस में पिता और बेटी के बीच की अदभुत कहानी दर्शायी गयी है. दोनों 20सालों से नहीं मिले. चूंकि वह पिता अपनी बेटी से एक दंगे के कारण बिछुड़ जाता है. लेकिन फिर जब वे दोनों 20 सालों बाद मिलते हैं तो दोनों एक दूसरे की भाषा नहीं समझ पाते. दोनों के बीच 20 अंगूली का भी फासला नहीं. लेकिन दोनों एक दूसरे से कोसो दूर हैं. पिता बेटी को बेटी कहकर बुला सकता है और लड़की अपने पिता को सिर्फ पापा कह कर बुला सकती है. इससे अधिक वे दोनों एक दूसरे की भाषा समझ पाने में असमर्थ हैं. फिल्म का नाम इसलिए डिस्टेंस हैं. वही दूसरी फिल्म लवली मैन में भी एक पिता और बेटी के रिश्ते की कहानी है. बेटी अपने पिता की खोज में आती है. उसे अपना पिता मिलता है. लेकिन वह एक समलैंगिक पुरुष बन चुका है. पिता बेटी को समझाता है कि वह लौट जाये. लेकिन बेटी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता. वह बस इथना चाहती है कि वह अपने पिता को जान पाये. उससे पूछ पाये कि वे उसे छोड़ कर क्यों आ गये. बावजूद इसके कि उस पिता की जिंदगी अब पूरी तरह बदल चुकी है. वह अपनी बेटी का पूरी तरह ख्याल रखता है. एक रात के लिए. एक अच्छे पिता की तरह. दूसरे दिन वह बिछुड़ते हैं. और बेटी पिता से अलग होकर रोने लगती है. इस फिल्म में खासतौर से इस बात को दर्शाने की कोशिश की गयी है कि एक पिता भले ही गंदा काम करता हो. लेकिन अपने बच्चे के प्रति वह हर संभव प्रयास करता है कि वह अच्छा पिता बन कर दिखाये. फिल्म माउंटेन में दो महिलाओं के बीच के प्रेम को दर्शाया गया है. फिल्म लिटिल प्रीसेंस की कहानी भी बेहद मार्मिक है. वालेटा 10 साल की बच्ची है. वह अपनी सनकी मां का प्यार पाने के लिए कुछ भी करती है. यहां तक कि वह अपनी मां की यह शर्त भी मानने को तैयार हो जाती है कि वह छोटी सी उम्र में ग्लैमरस वर्ल्ड में हर तरह के काम करने को तैयार हो जाती है.फिल्म स्काइकिपर में 17 साल का जॉन अपनी शराबी मां और पिता के साथ रहता है. वह अपनी जिंदगी से तंग आ चुका है. तभी उसकी जिंदगी में एक लड़की आती है. वह अंधी है. लेकिन वह जॉन के प्यार की निगाह से पूरी दुनिया देखने की कोशिश करती है. फिल्म मीटिंग में एक महिला यात्री और उसके टैक्सी ड्राइवर के बीच की प्रेम कहानी को दर्शाया गया है. दोनों पूरे एक दिन साथ रहते हैं और दोनों में प्यार हो जाता है.
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
अनुराग कश्यप ः बोल्ड फिल्में बनाना कोई गंदा काम नहीं है
मामी फिल्मोत्सव में उपस्थित निदर्ेशक अनुराग कश्यप मानते हैं कि बोल्ड फिल्में बनाना कोई गंदा काम नहीं है. लेकिन भारत में कई लोग हैं, जो उन निदर्ेशकों को गलत निगाह से देखते हैं, जो बोल्ड फिल्में बनाते हैं. शायद यही वजह है कि हम भारत में उन रिश्तों पर आधारित कहानियों को सामने नहीं ला पाते.जो हमारे बीच की कहानी है. जो सच है. जो हो रहा है. हमें लगता है कि वैसी कहानियों को दिखाने से हम दर्शकों को किसी गलत काम के लिए भटका रहे हैं या साफ शब्दों में कहें तो उकसा रहे हैं. हिंदी सिनेमा में अब भी हम समलैंगिकता पर आधारित कहानियों को कहने से डरते हैं. लेकिन भारत से बाहर ऐसा नहीं है. हम ंनिदर्ेशकों में आज भी झिझक है. जबकि यह हमारे समाज का ही एक नजरिया प्रस्तुत करता है.
ओनिर, निदर्ेशक ः समलैंगिकता को लेकर आज भी हीन भावना है
हम दर्शक जब भारत से बाहर की फिल्में देखते हैं. और उनमें कुछ ऐसे बोल्ड विषय पर आधारित कहानियों को कहने की कोशिश की जाती है तो हम उसे खुशी खुशी स्वीकारते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं. लेकिन वही काम अगर भारत में किया जाये तो लोग इसकी निंदा करते हैं. वे तो निदर्ेशकों के चरित्र पर ही सवाल खड़ी कर देते हैं कि वे निदर्ेशक उस प्रवृति का है. इसलिए वैसी फिल्में बनाना चाहता है. जबकि यह सच्चाई नहीं हैं. सबसे पहले तो हमें भारत के दर्शकों की सोच बदलनी होगी. हमें परदे से बाहर तो निकलना होगा. बोल्ड का मतलब केवल यह सोच लेना भर नहीं है कि किसी फिल्म में अभिनेता और अभिनेत्री के अंतरंग दृश्य हों. बल्कि हमें उन रिश्तों की कहानी को भी बारीकी से दर्शाना होगा.
हिंदी की कुछ फिल्में
हिंदी सिनेमा की बात करें तो मानसून वेडिंग एक ऐसी फिल्म थी, जिसमें अपने सगे संबंधियों द्वारा हो रहे यौन बाल शोषण को दर्शाया गया था. फिल्म की नायिका शेफाली छाया अपने ही चाचा द्वारा यौन पीड़ा सह रही होती है. लेकिन वह इस बात को कह नहीं पाती. फिल्म फायर भी एक ऐसी ही अलग तरह के रिश्ते की कहानी थी, जिसमें दो महिलाओं के बीच पनपते प्रेम को दर्शाया गया था. फिल्म सौरी भाई में एक भाई का अपने बड़े भाई की मंगेतर से ही प्यार करना दिखाया गया है. यह भी अलग तरह के विषय पर आधारित कहानी थी. कुछ इसी तरह फिल्म साहेब, बीवी और गैंगस्टर में मतलब के लिए अपने पति और ड्राइवर दोनों के इस्तेमाल पर आधारित कहानी दिखाई गयी. फिल्म दैट गर्ल इन यल्लो बुट्स में तो दिल को दहला देनेवाली रिश्ते की कहानी दिखाई गयी है. जिसमें नायिका का पिता अपनी बेटी पर ही गलत निगाह रखता है. इन फिल्मों के विषय हमारे बीच से ही आये हैं. हम दर्शक जब भारत से बाहर की फिल्में देखते हैं. और उनमें कुछ ऐसे बोल्ड विषय पर आधारित कहानियों को कहने की कोशिश की जाती है तो हम उसे खुशी खुशी स्वीकारते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं. लेकिन वही काम अगर भारत में किया जाये तो लोग इसकी निंदा करते हैं. वे तो निदर्ेशकों के चरित्र पर ही सवाल खड़ी कर देते हैं कि वे निदर्ेशक उस प्रवृति का है. इसलिए वैसी फिल्में बनाना चाहता है. जबकि यह सच्चाई नहीं हैं. सबसे पहले तो हमें भारत के दर्शकों की सोच बदलनी होगी. हमें परदे से बाहर तो निकलना होगा. बोल्ड का मतलब केवल यह सोच लेना भर नहीं है कि किसी फिल्म में अभिनेता और अभिनेत्री के अंतरंग दृश्य हों. बल्कि हमें उन रिश्तों की कहानी को भी बारीकी से दर्शाना होगा.
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