आंखें बंद कर अगर आप परिकल्पना करें कि सामने कोई मूर्ति है. और उस मूर्ति में अचानक जान आ गयी है. वह बेहद विनम्र हैं. मुस्कुराती हुई सी है. और आंखें खोलो. सामने लताजी दिख जायें तो लगता है, जैसे वह परिकल्पना हकीकत में बदल गयी हो. लता जी पर्याय हैं किसी व्यक्ति के ऊंचाईयों पर पहुंचने के बावजूद अपने पांव धरातल पर कैसे रखा जा सकता है. लगा मंगेशकर ने हमेशा क्वांटिटी की बजाय क्वालिटी को महत्व दिया है. जल्दबाजी उनमें कभी नहीं रही. ठहर कर, पूरी तन्मयता के साथ अपने काम को अंजाम देना कोई लताजी से ही सीखे. उन्होंने हमेशा सीखते रहना सीखा है. नयी चीजें, नये लोगों से हमेशा उन्होंने नया सीखने की कोशिश की है. वह मानती हैं कि आज भी ऐसी कई चीजें हैं, जिन्हें वे समझ नहीं पायी हैं. वे उन्हें सीखना चाहती हैं. लताजी ने खुद इस बात का हमेशा जिक्र किया है कि उन्होंने उर्दू युसूफ साहब( दिलीप कुमार) की वजह से ही सीखी. मुझे याद है, उनके सामने जब भी कोई नया कलाकार आता था और उनसे पूछा करता था कि वे कैसे उर्दू के उच्चारण पर अपनी कमांड बनाये. तो वह उन्हें यही वाक्या सुनाती थी. वह बताती हैं वर्ष 1947 की बात रही होगी. लता, अनिल विस्वास और दिलीप साहब साथ में सफर कर रहे थे. किसी ट्रेन में. दिलीप साहब ने लता जी को नहीं पहचाना. उन्होंने अनिल जी से पूछा. यह लड़की कौन है. अनिल ने बताया कि यह लता हैं. और यह नहीं गायिका हैं. मधुर गाती हैं. जब आप सुनेंगे तो आप भी इनके फैन हो जायेंगे. दिलीप साहब ने कहा. मराठी है क्या यह लड़की. अनिल दा ने कहा हां. तो दिलीप साहब कहने लगे. फिर तो समझ लीजिए पूरे उर्दू शब्द की खिचड़ी हो जायेगी. यह बात लता दीदी को बहुत बुरी लगी. उन्होंने तुरंत तय कर लिया वह उर्दू सीख कर रहेंगी. उन्होंने उसी वक्त संगीत निदर्ेशक मोहम्मद शफी और नौशाद साहब से बात की. उन्होंने लता जी के लिए एक मौलाना का इंतजाम किया, जिससे लता जी की उर्दू को दुरुस्त कर दिया. कुछ इस तरह उन्होंने अपनी भाषा पर कमांड बनायी. लताजी के साथ काम करते हुए हम संगीत निदर्ेशकों को भी बहुत कुछ सीखने का मौका मिलता था. उनकी सबसे खास बात यह थी कि वह हमें कभी भी निराश नहीं करती. जूनियर निदर्ेशक हों तो भी उन्हें यह बिल्कुल एहसास नहीं कराती. वे रिकॉर्डिंग से पहले ही कह देती. भई, अब मैं आ चुकी. समझो बच्ची हूं. नयी हूं. तुम बताओ क्या करना होगा. जैसा कहोगे.जैसा चाहिए वैसा ही गाने लेना. कोई समझौता मत करना यह सोच कर कि मैं सीनियर हूं. यह सोचने की जरा भी जरूरत नहीं. मैं नयी हूं. हर संगीत निदर्ेशक की अपनी सोच होती है और उस पर खरी उतरूं. तभी फाइनल समझना. वरना मैं बार बार भा गा दूंगी. कोई हिचक नहीं रखना. लता जी की एक और खास बात थी कि वह गीत पहले गीतकार से इत्तमिनान से सुनतीं. हर शब्द को समझने की कोशिश करती थीं. लताजी के लिए किसी भी शब्द का सही उच्चारण सबसे अधिक मायने रखता था. लताजी ने गीत में खुद को पारंगत करने के लिए कई अन्य भाषाओं पर भी कमांड बनायी. जिनमें बांग्ला और उर्दू भाषा प्रमुख है. लताजी के साथ मेरी कई यादें हैं. मैंने उनके साथ जो भी काम किया. अलग तरीके से करने की कोशिश की और लताजी का मुझे सहयोग भी मिला. मुझे याद आ रहा है, जब हम गीत उठे सबके कदम, तारा रम पम... की तैयारी कर रहे थे. किशोर दा और लता दी सभी एक साथ स्टूडियो पहुंचे. हमने गाने से पहले अपने बचपन की बातें शेयर की. चूंकि गाने का मूड कुछ ऐसा ही था. दीदी की आदत थी, कि वे माहौल को खुशनुमा बनाये रखती थी, ताकि लोग बोर न हो और वे गा सकें. और साथ में जब किशोर दा रहते. तो फिर आलम क्या रहता होगा. आप अनुमान लगा सकते हैं. वह दौर बिल्कुल अलग सा था. दीदी कहती थी, भई मुझे मुंह लटका कर रहना अच्छा नहीं लगता और अगर किसी का मुंह लटका देखूंगी तो गा नहीं पाऊंगी. सो सभी मुस्कुराते रहे. फिर हम सभी मिल कर काम करना शुरू करते. लता जी की शख्सियत के इतने विभिन्न आयाम है, जिन पर जितनी भी बातें की जाये कम है. हां, लेकिन उन विभिन्न आयामों में से भी एक बात जो सबसे अहम है, वह यही है कि वह अद्वितीय हैं. और विभिन्नता में भी एकता को बनाये रखनेवालों में से एक हैं. उन्होंने उस दौर में जब कम महिलाएं ही इस क्षेत्र में आती थी, उस दौर में अपनी जगह बनायी. उन्होंने अपने अधिकार के लिए भी लड़ाई की. उनकी ही वजह से गायक-गायिकाओं का नाम फिल्मों के पोस्टर्स पर लिखा जाना शुरू किया गया. निस्संदेह लताजी के योगदान की व्याख्या कर पाना मुश्किल है. उनके सम्मान में हम बस यही कर सकते हैं कि उनके योगदान की गरिमा बनाये रखें और भारतीय सिनेमा के संगीत को स्तरीय बनाये रखने में प्रयासरत रहें.
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20111014
नये संगीत निदर्ेशकों से भी सीखने के लिए जिज्ञासु रहतीं लता दी:
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