फिल्म अछूत कन्या के एक गीत में देविका रानी और अशोक कुमार ने गीत मैं बन का पंक्षी बन बन डोलू रे...का पूरा गीत एक पेड़ के सामने ही गाया है. चूंकि उस दौर में म्यूजिक के कोई इंस्ट्रूमेंट नहीं हुआ करते थे. उस वक्त बेसुरों को सुर में लाना बेहद कठिन था. उस दौर के अधिकतर गाने पेड़ों के इर्द गिर्द ही हुआ करते थे. हुनर की असली पहचान तो उस वक्त ही होती थी. अभी हाल ही में मोहम्मद रफी साहब पर आधारित एक किताब की लांचिंग में अमिताभ बच्चन ने इस बारे में विस्तार से बताते हुए कहा कि किस तरह उस दौर में सभी गायकों व संगीतकारों को मेहनत करनी पड़ती थी. गाने की रिकॉर्डिंग में सभी इक्ट्ठे होते थे. खुद अमिताभ अपने घर पर कितनी बार रिहर्सल किया करते थे. राजकपूर भी शंकर जयकिशन और शैलेंद्र के साथ बैठ कर अपने घर पर मजलिश जमाया करते थे. उस दौर में निर्देशकों की उनके संगीतकारों से व गीतकारों से घनिष्ठ मित्रता भी इसलिए हो जाया करती थी, क्योंकि सभी एक दूसरे के साथ काफी वक्त बिताते थे. लेकिन आज के दौर में न तो वह माहौल है और न ही हो पाना संभव है. खुद अमिताभ मानते हैं कि आज बेसुरी आवाजों को भी सुर दिया जा सकता है. सब तकनीक का कमाल हो चुका है. लेकिन उस दौर में ऐसा नहीं होता था. अमिताभ खुद उस माहौल को मिस करते हैं. दरअसल, हकीकत यही है कि किसी जमाने में हिंदी सिनेमा को खास पहचान दिलाने में हिंदी फिल्मों के संगीत की अहम भूमिका रही. क्योंकि उस दौर में गीत बनते भी सबकी आत्मा से थे. अब की तरह नहीं, कि सभी गायक सिर्फ अपने अपने हिस्से के गाने गाकर चले जाते हैं और अगर संगीतकार को गायक की आवाज पसंद न आये तो वह उसी गायक के नाम पर किसी और की आवाज ले लेता है. संगीत उस वक्त पूजा थी. आज सिर्फ भोग की वस्तु है.
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20121203
बेसुरे संसार में सुरीले गीत
फिल्म अछूत कन्या के एक गीत में देविका रानी और अशोक कुमार ने गीत मैं बन का पंक्षी बन बन डोलू रे...का पूरा गीत एक पेड़ के सामने ही गाया है. चूंकि उस दौर में म्यूजिक के कोई इंस्ट्रूमेंट नहीं हुआ करते थे. उस वक्त बेसुरों को सुर में लाना बेहद कठिन था. उस दौर के अधिकतर गाने पेड़ों के इर्द गिर्द ही हुआ करते थे. हुनर की असली पहचान तो उस वक्त ही होती थी. अभी हाल ही में मोहम्मद रफी साहब पर आधारित एक किताब की लांचिंग में अमिताभ बच्चन ने इस बारे में विस्तार से बताते हुए कहा कि किस तरह उस दौर में सभी गायकों व संगीतकारों को मेहनत करनी पड़ती थी. गाने की रिकॉर्डिंग में सभी इक्ट्ठे होते थे. खुद अमिताभ अपने घर पर कितनी बार रिहर्सल किया करते थे. राजकपूर भी शंकर जयकिशन और शैलेंद्र के साथ बैठ कर अपने घर पर मजलिश जमाया करते थे. उस दौर में निर्देशकों की उनके संगीतकारों से व गीतकारों से घनिष्ठ मित्रता भी इसलिए हो जाया करती थी, क्योंकि सभी एक दूसरे के साथ काफी वक्त बिताते थे. लेकिन आज के दौर में न तो वह माहौल है और न ही हो पाना संभव है. खुद अमिताभ मानते हैं कि आज बेसुरी आवाजों को भी सुर दिया जा सकता है. सब तकनीक का कमाल हो चुका है. लेकिन उस दौर में ऐसा नहीं होता था. अमिताभ खुद उस माहौल को मिस करते हैं. दरअसल, हकीकत यही है कि किसी जमाने में हिंदी सिनेमा को खास पहचान दिलाने में हिंदी फिल्मों के संगीत की अहम भूमिका रही. क्योंकि उस दौर में गीत बनते भी सबकी आत्मा से थे. अब की तरह नहीं, कि सभी गायक सिर्फ अपने अपने हिस्से के गाने गाकर चले जाते हैं और अगर संगीतकार को गायक की आवाज पसंद न आये तो वह उसी गायक के नाम पर किसी और की आवाज ले लेता है. संगीत उस वक्त पूजा थी. आज सिर्फ भोग की वस्तु है.
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