हिंदी सिनेमा ने अपने जीवन के 98 वर्ष को पूरी जिंदादिली से जिया है. बदलते दौर के साथ, सिनेमा के लोग बदले, सिनेमा की सोच बदली, सिनेमा की पीढ़ी भी. लेकिन इसके बावजूद इतिहास हमेशा इतिहास ही रचता है. चर्चिल के कथनों के अनुसार हमें अगर अपने भविष्य की चिंता है तो हमें बार-बार अपने अतीत को खंगालने की जरूरत है. हिंदी सिनेमा का भविष्य भी उसके इतिहास में है. और उसी इतिहास में ऐतिहासिक कीर्तमान है फिल्म शोले और इसके निदर्ेशक रमेश सिप्पी. इतने वर्षों के बावजूद अब तक हास्य-व्यंग्यों में रियलिटी शोज में जितने रीमेक फिल्म शोले के रूप में लोगों के सामने आये हैं.किसी और फिल्म के नहीं. आज भी उसकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है. लेकिन रमेश उस दौर के उन निदर्ेशकों में से हैं जो नयी पीढ़ी के युवा दर्शकों का स्वागत करते हैं. कुछ पुरानी यादें और उस दौर से वर्तमान दौर के सिनेमा के जुड़ते तार पर रमेश सिप्पी से अनुप्रिया ने विशेष बातचीत की...
अगर आपमें उमंग है. ललक है न तो आप जरूर कर सकते हैं. आप तो नयी पीढ़ी हैं. आप ही लोग तो भविष्य हैं. शोले जैसी ऐतिहासिक फिल्म के निदर्ेशक रमेश सिप्पी से रूबरू होने के साथ उनके यह शब्द कानों में पड़ते ही हर नयी युवा पीढ़ी को उमंग और ऊर्जा से भर देंगे. दरअसल, रमेश सिप्पी उन निदर्ेशकों में से हैं जो पुराने दौर के सिनेमा को साथ लेकर चलने की बात तो करते हैं लेकिन साथ ही वे नयी युवा पीढ़ी का भी तहे दिल से स्वागत करते हैं.
युवा पीढ़ी पर है पूरा भरोसा
बकौल रमेश...आज के दौर में सिनेमा में जिस तरह की फिल्में बन रही हैं और निदर्ेशक नये नये कंसेप्ट के साथ आ रहे हैं. मैं उनका स्वागत करता हूं. पिछले साल तो पूरी फौज ही नजर आयी और ऐसा लगा कि उन्होंने एक साथ हिंदी सिनेमा पर धावा बोला है. कि देखें हम सभी एक से बढ़ कर एक फिल्में लगातार आपके सामने लायेंगे. मुझे सच कहूं तो नयी पीढ़ी से बेहद उम्मीद है.
शोले की प्रासंगिकता
मैं मानता हूं कि दर्शक के मिजाज को समझना आज भी उतना ही कठिन है. जितना पहले कभी हुआ करता था. यह कह पाना बहुत मुश्किल है कि आज के दौर में अगर शोले बनती तो पसंद की जाती या नहीं. वैसे मैं मानता हूं कि शोले एक अपवाद थी. चूंकि आप गौर करें तो उसके बाद और भी फिल्में बनीं उस तरह की. लेकिन जिसने इतिहास बना दिया सो बना दिया. मैं मानता हूं कि अब दर्शकों के मिजाज में बदलाव आया है. वे अब अधिक बुध्दिजीवी हो गये हैं. माहौल बदला है. सोच बदली है तो जाहिर है नजरिया भी बदलेगा. तो हम यह नहीं कह सकते कि फिल्में अच्छी नहीं बन रहीं. या क्लाइमेक्स पहले की फिल्मों की तरह नहीं होता. दरअसल, अब हम सिनेमा को सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि एक उद्देश्य के रूप में भी देखने लगे हैं.लेकिन अगर मेरी राय पूछें तो हिंदी सिनेमा का स्वर्णिम दौर है. चूंकि यहां अब किसी परिवार का नहीं बल्कि परफॉरमेंस को तवज्जो दी जा रही है. उड़ान, तनु वेड़्स मनु, नो वन, बैंड बाजा जैसी फिल्में पसंद की जा रही हैं.
बेटे रोहन से उम्मीदें
मैं फिल्मों में इसलिए आया. चूंकि पिताजी थे. शुरू से उनके साथ सेट पर जाना. काम देखना, तो कैमरे से प्यार सा हो गया. लेकिन मेरे बच्चों के साथ वह बात नहीं थी. मेरे चार बच्चों में किसी ने इस क्षेत्र में कदम नहीं रखा. लेकिन रोहन विदेश गये, वहां पढ़ाई कि लेकिन उनका मन यही रह गया सिनेमा में. वापस आये और बस काम से जुड़ गये. मुझे रोहन से उम्मीदें हैं.वे अच्छा काम कर रहे हैं. बारीकियां हैं उनके काम में. खास बात यह है कि वह अपने निदर्ेशन में नये नये आइडिया को लाने की कोशिश करते हैं. दृश्यों को खूबसूरती से पिरोते हैं. स्क्रिप्ट पर अच्छा काम करते हैं और वन लाइनर बेहद अच्छा क्रियेट करते हैं. किरदार दर्शकों के सामने किस रूप में आयेगा. यह कल्पना अच्छी करते हैं. वह मुझसे जहां सीख लेना चाहते हैं. मैं देता हूं. दम मारो दम के रूप में अच्छी फिल्म बनाई है. उम्मीद है दर्शकों को पसंद आयेगी.
शोले का पसंदीदा सीन
फिल्म शोले में ऐसे कई दृश्य हैं, जो मेरे पसंदीदा दृश्य हैं, लेकिन वह सीन मुझे बेहद मार्मिक लगता है जब संजीव कुमार यानी ठाकुर वापस गांव आता है. गांव की तबाही देखता है और अपने घर पर अपनी विधवा बहू को देखता है. इसके अलावा फिल्म के संवाद मुझे अतिप्रिय हैं और शोले की वजह से ही मुझे धमर्ेंद्र और अमिताभ जैसे अच्छे कलाकार मिले. दर्शकों को गब्बर मिला और मेरे निदर्ेशक बनने का ख्वाब पूरा हुआ.
पसंदीदा फिल्म शक्ति
फिल्म शक्ति मेरी पसंदीदा फिल्म है. चूंकि इस फिल्म में मुझे मेरी प्रिय कलाकार स्मिता पाटिल के साथ काम करने का मौका मिला. इस फिल्म में अमिताभ और स्मिता थे. वह एक पीढ़ी थी और अब दूसरी पीढ़ी रोहन, अभिषेक और प्रतीक बब्बर दम मारो दम के माध्यम से आप सबके सामने होंगे. तो दो पीढ़ियों को जोड़ती यह फिल्में मेरे लिए हमेशा महत्वपूर्ण रहेंगी.
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