वर्ष 1959 में नूतन अभिनीत व बिमल रॉय निर्मित फिल्म सुजाता जातिय भेदभाव को लेकर बनायी गयी फिल्म थी. फिल्म के अभिनेता सुनील दत्त सुजाता से बेइतहां प्यार करते हैं. मन ही मन सुजाता भी उन्हें बेहद चाहती है .लेकिन जातिय भेदभाव की वजह से वह चुप है और बस चुपचाप सबकुछ सहती जाती है. फिल्म ब्लैकमेल की नायिका अंततः अपनी बात समझाने में असफल रहती है कि रह निर्दोष है. तो वही फिल्म साहिब बीवी गुलाम में मीना कुमारी अपने प्रियवर को दूसरी औरत के दूर करने के लिए टोटके के सिंदूर का टोटका आजमाने से भी गुरेज नहीं करती.चूंकि उसके पास और कोई हथियार भी नहीं था, क्योंकि उस दौर की महिला किरदारों ने चुप होकर सिफ सहना सीखा था. चुप्पी साध कर, घुट घुट कर जीना ही उन्हें हमेशा मुनासिब लगा. मेरे पति परमेश्वर व पिता देवता समान. कुछ ऐसी ही सोच रखती थीं वे. गौरतलब है कि उस दौर में फिल्मों का निर्माण उस दौर के सामाजिक परिस्थितियों को आधार मान कर बनाये जाते रहे थे. जिस तरह स्त्री का चरित्र चित्रण परिवार व समाज में था. वैसा ही सिल्वर स्क्रीन पर भी फिल्माया जाता था, ताकि वास्तविकता लोगों के सामने आ सके. चूंकि उस दौर में महिलाएं बेबस, कठपुतली की तरह हर बात पर चाबी देकर हां या नां में सिर हिलानेवाली एक गुड़िया थी, सो उनका चरित्र चित्रण भी कुछ उसी अंदाज में किया जाता रहा. दरअसल, हिंदी सिनेमा में अधिकतर महिला किरदारों को इस रूप में गढ़ा गया कि अधिकतर फिल्मों में उनकी वास्तविक छवि उभर कर सामने नहीं आ पायी. गौर करें तो यह जरूर था कि कई फिल्मों के नाम महिला किरदारों के नाम पर रखे गये. लेकिन उन फिल्मों में महिला किरदारों की भूमिका न मात्र की होती थी. लेकिन धीरे-धीरे यह प्रथा टूटती नजर आयीय. जिस कदर महिलाओं ने बदलते जमाने के साथ कदमताल करना शुरू किया. सबकुछ बदला. तो फिल्मों ने भी महिलाओं के प्रति अपना नजरिया बदला. अब महिलाएं फिल्मों में रोती या सिसकती नहीं, बल्कि बोल्ड, बिंदास व दबंग रूप में नजर आने लगीं. धीरे-धीरे निदर्ेशकों ने भी यह बात समझी कि महिलाओं का प्रयोग सिर्फ किसी गाने या कपड़ों की नुमाईश के लिए नहीं. गौर करें तो फिल्म गाइड में रोजी अपने पति के साथ घुमने आती है. वहां उसे गाइड राजू से प्यार हो जाता है. अपने पति के अत्याचार व पत्नी को कुछ न समझनेवाले पति से दूरी ने राजू से नजदीकियां बढ़ायीं और उसने सहज स्वीकार किया कि वह राजू से प्यार करती है. एक तरह से देखें तो पति के हाथों मजबूर होकर सिसकनेवाली महिला अचानक इतनी बोल्ड होती पहली बार दिखाई दी थी. हालांकि ब्लैक एंड ह्वाइट के दौर में ऐसी कई फिल्में बनीं. लेकिन गाइड में एक स्वछंद महिला का चेहरा इभर कर लोगों के सामने आये. अपने पति के नक्शे कदम व ईशारों पर नाचनेवाली गुड़िया बार-बार अपने पति के कहने पर अग्नि परीक्षा देनेवाली अचानक तलवार थाम लेती है. फिर सामने मदर इंडिया की छवि उजागर होती है. जिसमें वह अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने से भी नहीं कतराती. फिल्म सीता और गीता में भी महिलाओं के दो स्वरूपों का खूबसूरत चित्रण किया गया है. जिसमें एक रूप को बिंदास, बोल्ड, निर्भय दिखाया गया है तो एक को बेबस और लाचार. लेकिन गौर करें तो धीरे धीरे महिला किरदारों के प्रति लोगों का नजरिया बदलता ही गया. सीता और गीता ही आगे चल कर चालबाज की श्रीदेवी के रूप में नजर आयी. सच यह है कि जैसे जैसे दौर बदले, महिला किरदारों व नायिकाओं ने भी अपनी सोच बदली. अब नायिकाओं के लिए भी बोल्डनेस का मतलब सिर्फ कम कपड़े पहनना नहीं बल्कि अपने किरदार में भी दबंगई लाना था. याद करें तो जीनत अमान व रेखा ने कई फिल्मों में सशक्त अभिनय में इस नजरिये की पुष्टि की है. फिल्म खून भरी मांग में वह अपने पति की खून का बदला लेती है. वह इंस्पेक्टर के रूप में भी नजर आती है. भले ही लीव इन रिलेशनशिप को इतने सालों बाद समझ पायें हों लेकिन फिल्म दीवार में पहली बार परवीन बॉबी अमिताभ बच्चन के साथ लीव इन रिलेशन में रहती है. उस दौर में महिला किरदारों को इस रूप में दिखाना भी एक सराहनीय प्रयास था. धीरे-धीरे महिलाओं ने खुद को और बिंदास और बेफिक्र बनाया. साथ ही उन्होंने अपने किरदारों में आत्मनिर्भरता को भी प्राथमिकता देनी शुरू की. स्मिता पाटिल, शबाना आजमी ने वर्षों से महिलाओं के बंधे बंधाए किरदार को तोड़ने में अहम भूमिका निभायी. फिल्म अर्थ से शबाना आजमी ने साबित किया कि एक महिला कैसे सही होने पर सही इंसान का ही चुनाव कर सकती है. आगे चल कर रेखा ने भी कई फिल्मों में यह सिलसिला जारी रखा. कभी पाकिजा, साहिब बीवी और गुलाम व कई फिल्मों में गुलाम बनी महिलाओं को धीरे धीरे फिजाएं खुली मिली और उन्होंने स्वछंद बिना किसी के परवाह उड़ना शुरू किया और उड़ते उड़ते वह उड़ान इतनी ऊंची होती गयी कि अब वह कॉलेज में डयूड गर्ल बन गयी और लड़की होकर लड़कों की रैगिंग भी लेने लगी. अब वह नो वन किल्ड जेसिका की मीरा की तरह बिंदास गालियां भी देती है. सिगरेट भी फूंकती है और रात के 12 बजे बिना किसी लिफ्ट के सहारे अकेले घर जाने का दमखम भी रखती है. उसके लिए अब सिर्फ शादी, व्याह और प्यार ही सबकुछ नहीं. अब करियर भी उसकी प्राथमिकता बनी. और इस रास्ते में जो भी आया उसे बिंदास न कहने में भी उसे अफसोस नहीं हुआ. फिल्म लव आज कल की मीरा, ब्रेक के बाद की आल्या कुछ ऐसे ही नाम हैं. वे एंवी किसी से शादी नहीं करेंगी. उन्हें अब बोल्ड कहलाना सिर्फ इसलिए पसंद नहीं कि वे कम कपड़ों में नजर आयेें. बल्कि अपने किरदारों की वजह से उन्होंने लड़कों पर अपनी छवि बरकरार की. और अपने इस अंदाज का जादू उन्होंने कुछ इस कदर बिखेरा कि फिल्म इश्किया की कृष्णा वर्मा से दो मर्द धोखे खा गये. लेकिन कृष्णा ने अपने मकसद के लिए उनका इस्तेमाल करने में कोई चूक नहीं बरती. अब घर के किसी कोने में उसे रोना सिसकना और आंसू निकालना मंजूर नहीं था. अपने पति की धोखेबाजी पर वह रोने की बजाय उसका खून करने से भी बाज नहीं आयी. फिल्म सात खून माफ की सुजैना को अपने सच्चे प्यार की खोज तो है लेकिन वे उनसे भी सख्त नफरत करती है जो उन्हें धोखे देते हैं. वे उन्हें अपने रास्ते से ही साफ कर देती है. कभी सड़कों पर गलियों के लड़कों के छेड़ने की वजह से डर कर सहम जानेवाली अचानक टॉम ब्वॉय के रूप में सामने है. महिला पात्र की महत्वपूर्ण फिल्मों में अगले जन्म मोहे बिटिया ही कीजो, दमन, दामुल, मृत्युदंड, रुदाली, प्रोवोक्ड, अस्तित्व, चमेली, चांदनी बार जैसी फिल्में भी प्रमुख रही हैं. हाल ही में रिलीज हुई फिल्म तनु वेड्स मनु की तनुजा साफ कहती है कि दिल्ली में पढाई इसलिए नहीं कि पापा जहां कहेंगे वहां शादी कर लेंगे. उसे अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीनी है. फिर चाहे कोई भी हो. उसे यह फर्क नहीं पड़ता कि कोई क्या कहता है या करता है. अगर उसकी इच्छा है तो वह भी लड़कों की तरह ट्रेन के गेट पर खड़े होकर सिगरेट की फूंक लगा सकती है. और भीड़ भाड़ में भी वह शराब की कश लगाने से गुरेज नहीं करती. जरूरत पड़ने पर वह खुद अभिनेता को बैक सीट पर बिठा कर खुद बाूइक भी चला सकती है. अगर इच्छा है तो वह किसी और की नौकरी करने की बजाय फिल्म बैंड बाजा बारात की श्रूति कक्कर की तरह खुद अपना बिजनेस शुरू कर सकती है. और बेहतरीन वेडिंग प्लानर बन कर भी दिखा सकती है. अब वह इतनी हिम्मत भी रखती है कि लगातार अत्याचार सहने के बाद जरूरत पड़ने पर वह अपने पति को छोड़ कर वापस आ सकती है. कभी पति ही परमेश्वर व मरते दम तक हर हाल में पति की सेवा करनेवाली स्त्री शादी के बाद ही किसी से प्यार करने की हिम्मत रखती है और खुशी खुशी वह उसके साथ घर बसाने को भी तैयार हो जाती है. फिल्म गुजारिश की सोफिया अइंततः सारे बंधन तोड़ कर ईथान के पास सिर्फ प्रेम की चाहत में ही तो आती है. दरअसल, सच्चाई यह है कि हिंदी सिनेमा जगत ने अब इतनी हिम्मत दिखानी शुरू की है कि वे महिला प्रधान फिल्में बनाने लगे हैं. उन्हें विश्वास हो गया है कि महिलाएं सिर्फ गीतों के फिल्माकंन या क्रैबे और ्ाइटम सांग के लिए नहीं बल्कि और भी कई रूपों में अपना जलवा बिखेर सकती हैं. गौरतलब है कि इसी साल 7 जनवरी को सिल्वर स्क्रीन पर एक साथ दो महिला प्रधान फिल्में रिलीज हुईं, नो वन किल्ड जेसिका और विकल्प. नो वन किल्ड में रानी व विद्या ने सशक्त भूमिका निभायी और फिल्म हिट भी हुई. लोगों ने इसे खूब सराहा. फिल्म विकल्प में एक ऐसी अनाथ लड़की की कहानी का सफर दिखाया गया जिसमें वह टैलेंटेड होने की वजह से बुरे लोगों के चंगुल में फंस जाती है . लेकिन फिर अपने दिमाग के दम पर वह खुद को उससे निकालने में भी कामयाब होती है. यह महिला किरदार का ही जलवा होता है जो फिल्म फैशन के माध्यम से मधुर भंडारकर व प्रियंका चोपड़ा को राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल करा देता है. जरूरत पड़ने पर वह बिंदास गालियां देने से भी नहीं झिझकती. गौर करें तो धीरे धीरे फिल्मों की नायिकाओं की बोल्डनेस की वजह से ही आम महिलाओं ने भी झिझक तोड़ी है. अब वह कॉलेज व राह चलते लड़कों के अक्ल ठिकाने लगाने से गुरेज नहीं करती. वे अब प्यार सिर्फ इमोशन के आधार पर नहीं बल्कि यह देख कर करती है कि वह लड़का उसे कितनी आजादी देगा. फिल्म तनु वेड्स मनु में एक दृश्य में तनु इस बात का जिक्र करती है कि मनु इसलिए अच्छा है कि क्योंकि वह उसकी आजादी छिनने की कोशिश नहीं करता. जब री मेट की गीत भी अपने प्यार को पाने के लिए पहले घर से भागती है. फिर वापस आती है और फिर जब उसे दूसरे से प्यार हो जाता है वह फिर से उससे शादी करने के लिए रजामंदी हासिल कर लेती है. अब की महिला पात्र अपने परिवार को अपने पसंद के लिए रजांमंद कर लेती है. उसे अब बंदूक की गोलियां नहीं, जेम्स की गोलियां चाहिए. चॉकलेट के पैक्ट्स चाहिए. दरअसल, आज की महिलाएं कुछ सबसे अहम चाहती हैं तो वह है आजादी. चूंकि वह जानती हैं कि बेड़ियां हटा दी जायें तो वह कमाल दिखा सकती हैं इसलिए उन्हें आजादी चाहिए, आत्मनिर्भरता चाहिए और इसी के बल पर वह आगे बढ़ेगी. सबसे अहम जो बार गौर करने की है वह यही है कि अब निदर्ेशकों ने महिला पात्रों को भी लड़कों की तरह ही सिर्फ कपड़ों में नहीं नजरिये में व उनके संवादों में आजादी प्रदान की है.
बहुत खूब| फिल्म जगत का अच्छा विश्लेषण किया है आपने |
ReplyDeletebehad sundar dhang se pesh kiya hai kal aur aaj me fark ko .........
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