रवींद्रनाथ इस बात से अच्छी तरह वाकिफ थे कि पूरे विश्व में हिटलर जैसे नेता भी किस तरह फिल्मों का सहारा ले रहे हैं और सिनेमा का आम लोगों पर किस तरह का प्रभाव हो रहा है. यही वजह थी कि वे खासतौर से जापान, रूस व अमेरिका की फिल्में देखा भी करते थे. उन्होंने इन फिल्मों को देखने के बाद ही यह नजरिया बनाया कि सिनेमा के माध्यम का आनेवाले समय में महत्वपूर्ण प्रभाव पड़नेवाला है. लेखक अरुण कुमार राय की पुस्तक रवींद्रो व चलोचित्र पढ़ने के बाद उसके कई पृष्ठों में इस बात का जिक्र है कि अन्य विधाओं के साथ-साथ रवींद्रनाथ टैगोर इस कला में भी माहिर थे. वे चाहते थे कि सामाजिक मुद्दों को लेकर फिल्में बने. चूंकि पूरे विश्व में सिनेमा का इस्तेमाल वहां के स्वतंत्रता संग्राम में प्रोपेगेंडा की तरह किया जा रहा और वहां के लोगों पर इसका प्रभाव भी पड़ रहा था. यही वजह रही कि उन्होंने भारत में भी इस बात पर जोर दिया. चूंकि रवींद्रनाथ टैगोर खुद स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े थे. वे कई लोगों को इस बात के लिए प्रभावित करते थे कि वे छोटी छोटी फिल्मों का निर्माण करें और उसे गांव कस्बों में दिखाये. उनका यह कहना कतई नहीं था कि वे फिल्मों के माध्यम से लोगों के बीच किसी भी तरह का भड़काउ माहौल तैयार करना चाहते हैं. लेकिन वे इस पक्ष में जरूर थे कि लोगों में जागरूकता फैले. यही वजह रही कि वे खुद 1932 में उनके द्वारा रचित प्ले नाटेर पूजा पर जब फिल्म बनने की बात हुई तो उन्होंने इस फिल्म में निदर्ेशन करने की ललक दिखायी. गौरतलब है कि यह पहली फिल्म थी, जिसमें रवींद्रनाथ टैगोर ने कुछ दृश्यों में शूटिंग करने की कोशिश की है.
विश्व सिनेमा पर पारखी नजर
फिल्मकार मेघनाथ इस बारे में बताते हैं कि रवींद्रनाथ टैगोर गांधीवादी विचारों के विरोधी नहीं थे. लेकिन वे उनकी उन बातों से सहमत नहीं होते थे. रवींद्रनाथ टैगोर ने उसी दौर में कह दिया था कि भविष्य में भारत का एक नया प्रारूप बनाने में सिनेमा का महत्वपूर्ण योगदान होगा. आनेवाले समय में सिनेमा बेहतरीन पहचान बनायेगा और बहुत ज्यादा एक्टिव भी नजर आयेगा. यह भविष्यवाणी उन्होंने उसी वक्त कर दिया है. मेघनाथ आगे बताते हैं कि रवींद्रनाथ टैगोर की कई कृतियों पर तो फिल्में बनी हीं. लेकिन रवींद्र के सिनेमा प्रेम से ही नेहरु भी बहुत प्रभावित थे. वे रवींद्र पर बनाई गयी फिल्मों को तो देखना पसंद करते ही थे. उनके विचारों से प्रभावित होकर ही कभी उन्होंने राजकपूर की फिल्म दिल्ली दूर नहीं में अभिनय करने की बात भी कह डाली थी. साथ ही रवींद्र की नजरिये से सिनेमा को देखनेवाले नेहरु ने विमल रॉय व राज कपूर सरीखे लोगों को रूस, चीन व एशिया के अन्य स्थानों पर भारतीय सिनेमा के प्रचार के लिए प्रभावित किया.
रवींद्र की रचनाएं व सिनेमा
रवींद्रनाथ टैगोर ने हमेशा गंभीर सिनेमा को महत्ता दी. शायद यही वजह है कि उनकी रचनाओं पर आधारित फिल्म गंभीर दर्शकों को ही रास आयी. दरअसल, उनकी रचनाओं में वह खास बात होती थी जो कई विजुअल मेटाफर बनाने में भी सहायक साबित होती थी. कई बार ऐसा होता था कि दर्शक उनके इस मेटाफर को समझने में असमर्थ हो जाते हैं. लेकिन उनकी हर रचना पर आधारित फिल्मों में एक संदेश जरूर होता है. टैगोर ने अपनी रचनाओं में कई प्रयोगात्मक कैरेक्टर का चुनाव किया था. उन्होंने कई तरीके से सारी बातों को जोड़ने की कोशिश की है. शायद यही वजह थी कि सत्यजीत रे जैसे निदर्ेशकों ने एक बार नहीं बल्कि रवींद्रनाथ टैगोर की रचनाओं पर तीन फिल्में बनायीं. जिनमें चारुलाता, तीन कन्या और घारे-बैयरे प्रमुख हैं. चारुलता 1964 में रिलीज हुई थी. यह उनकी रचना नोशटोनिर पर आधारित थी. फिल्म की कहानी स्वतंत्रता व 19वीं व 20वीं शताब्दी में होनेवाले सामाजिक मुदद्ों पर आधारित थी. फिल्म की कहानी में 1879 में बंगाल के परिदृश्य का चित्रण किया गया है. माधावी मुखर्जी ने फिल्म में मुख्य किरदार निभाया था. टैगोर की लघु कहानियों पर आधारित फिल्म तीन कन्या का निर्माण 1961 में किया गया था. उन्होंने इस फिल्म को बनाने से पहले इस फिल्म पर डॉक्यूमेंट्री बनायी थी. इसमें मोनिहारा, पोस्टमास्टर, सम्पाति पर आधारित थी. रवींद्र की रचनाओं में लिंगभेद, जातिवाद, नस्लवाद जैसे कई गंभीर मुद्द्ों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है. उनकी रचनाओं की फिल्मों में भी इसका विस्तार होता है. सत्यजीत रे के अलावा तप्पन सिन्हा ने भी टैगोर की कृतियों पर कई फिल्में बनायीं. जिनमें खुदितो पाषाण, अतिथि, काबुलीवाला जैसी फिल्मों का निर्माण किया. जिनमें काबुलीवाला बेहद चर्चित फिल्म रही. अतिथि में एक ब्राह्मण लड़के व उसके स्वतंत्रता संग्राम की कहानी को दर्शाया गया. टैगोर की खास कृति सेशर कोबिता पर आधारित फिल्म का निर्माण किया सुब्रजीत मित्रा ने. फिल्म का नाम रखा मोन अनमोर. रितुपर्णो घोष ने टैगोर को श्रध्दांजलि देते हुए नौकाडुबी का निर्माण किया है. टैगोर कह विधा में माहिर थे.
निदर्ेशक रवींद्र नाथ टैगोर
रवींद्रनाथ टैगोर ने एक दौर में प्ले के रूप में नाटेर पूजा की रचना की. आगे चल कर उन्हें लगा कि इसे सिनेमा का रूप देना चाहिए. इसलिए उन्होंने इसे अपने कुछ सगे साथियों की मदद से फिल्म का रूप दिया. उन्होंने फिल्म के कई दृश्य फिल्माये. गौरतलब है कि उन्होंने फिल्म की शूटिंग के दौरान एक बच्चे की तरह निदर्ेशन की ट्रेनिंग ली थी. इस फिल्म में बुध्द के जीवन से जुड़ी बातों को दर्शाया गया था. गौरतलब है कि यह उनका सिनेमा को बढ़ावा देना ही था.1914 में रवींद्रनाथ टैगोर ने वीरेंद्र गांगुली को फ्रांस जाकर फिल्म मेकिंग सीखने के लिए फ्रांस को पत्र लिखा था. फिर वर्ष 1931 में निदर्ेशक बीएम सरका ने उन्हें उनकी रचना नाटेर पूजा पर फिल्म निदर्ेशन करने के लिए तैयार किया, जिसमें उन्होंने अपने शांतिनिकेतन के छात्रों को काम करने के अवसर प्रदान किये. इस फिल्म के सिनेमेटोग्राफर नीतिन बोस थे.
सत्यजीत रे ने पांच फिल्में बनायी हैं जिनमें चारुलता, तीन कन्या, घारे बहरे प्रमुख हैं
तपन्न सिन्हा ने पांच फिल्में बनायीं, जिनमें खुदिपतो पाषाणा, अतिथि, काबुलीवाला, कांदिम्बनी प्रमुख हैं.
हाल के दिनों में ऋतोपर्णो ने चोखेरबाली बनायी.
ऋत्विक घटक ने कई बार उनके गानों का इस्तेमाल अपनी फिल्मों में किया था कोमल गांधार, मेघे डाके डार.
सुभाष घई ने हाल ही में उनकी रचना नौकाडबी का निर्माण किया है. इसका निदर्ेशन रितुपर्णों ने ही किया है. गौरतलब है कि नौका डुबी का शुरुआती दौर से लेकर अब तक( 1932- 1980 ) तीन बार निर्माण किया जा चुका है.
गीत-संगीत में रवींद्र
हिंदी फिल्मकारों ने रवींद्र संगीत का इस्तेमाल कई गानों में किया है. पंकज मल्लिक ने फूल हरे, हरे,,,याद आये कि न आये तुम्हारी,.,,,अब तेरे सिवा कौन है मेरा जैसे गानों का इस्तेमाल किया. विशेष कर एसडी बर्मन, बप्पी लहरी, नौशाद, रवींद्र जैन, राजेश रोशन ने अपनी फिल्मों में रवींद्र संगीत दिया है. तलत महमूद व सुरैया ने गाया गीत बचपन के दिन भूला न देना भी रवींद्र संगीत से ही प्रभावित था. राजेश रोशन की रचना छूकर मेरे मन को भी रवींद्र नाथ जोरी कापे नाइ चिनी को शेकी से ली गयी थी. गौरतलब है कि रवींद्रनाथ टैगोर की रचना पर बनी सबसे पहली फिल्म विसर्जन थी.
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