फिल्मः स्टैनली का डब्बा
कलाकारः अमोल गुप्ते, दिव्या दत्ता, पार्थो
निदर्ेशक ः अमोल गुप्ते
रेटिंगः 3.5/5
किसी भी सामाजिक मुद्दे को प्रस्तुत करने के लिए यह जरूरी नहीं कि उसे लोगों के सामने शोर मचा कर ही प्रस्तुत किया जाये. एक सामान्य सी दिल छू देनेवाली कहानी भी आपके सामने कई बातें कह जाती हैं. अमोल गुप्ते की फिल्म स्टैनली का डब्बा इस राह वाकई एक बेहतरीन फिल्म है. निदर्ेशक अमोल गुप्ते ने अपनी काल्पनिक दुनिया में बैठ कर बाल मजदूरी के विषय पर एक ऐसी भावविभोर हो जानेवाली कहानी लिखी है. जिसे देख कर आपकी आंखें नम निश्चित तौर पर होंगी. तारें जमीं में निदर्ेशन न कर पाने का मलाल उन्हें हमेशा रहा. लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इस फिल्म में एक भी बारीकी नहीं छोड़ी. हर संवाद हर शब्द व दृश्यों को खूबसूरती से उकेरा गया है.फिल्म में न लंबे दृश्य हैं या अत्यधिक किरदार. बहुत देर तक लोगों के सामने किसी भी मुद्दे को विश्लेषित करते हुए भी नहीं दिखाया गया है. इसके बावजूद फिल्म दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर देती है. यह कहानी है स्टैनली की. स्टैनली अपने स्कूल में सबसे होनहार छात्र है. उसे स्कूल के सभी टीचर प्यार करते हैं. वह कहानी कहने व कविताएं बनाने में भी उस्ताद है. उसकी एक टीम भी है. जिसके दोस्त उसे बेहद प्यार करते हैं.फिल्म की कहानी में एक अहम मुद्दे को डब्बे के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचाने की कोशिश की है. स्टैनली अच्छा गाता है. अच्छा डांस करता है. अच्छी कविताएं भी बनाता है. अपनी हरकतों से ही वह औरों से अलग है. होली स्कूल के कई टीचर उससे प्यार करते हैं लेकिन रोजी मिस उसे सबसे अधिक चाहती है. इन्हीं शिक्षकों में से एक है वर्माजी. वर्माजी को दूसरों का डब्बा खाने की बुरी लत है. वे खुद दूसरों का डब्बा खाते हैं लेकिन स्टैनली के डब्बे न लाने की वजह से वे उसे बातें सुनाते हैं और स्कूल से बाहर निकाल देते हैं. कहानी यहां से मोड़ लेती है और धीरे धीरे स्टैनली के बारे में दर्शकों को एक ऐसी सच्चाई पता चलती है जिसके बाद दर्शक दंग रह जायेंगे. यह यकीनन मानना होगा कि शिक्षक व छात्र के बीच के रिश्ते को सोचने व सहजेने में व फिर उसे कहानी के रूप में गढ़ने में अमोल गुप्ते का जवाब नहीं. उन्होंने तारें जमीं पर के माध्यम से भी बेहतरीन तरीके से एक शिक्षक व छात्र की कहानी गढ़ी. इस फिल्म के माध्यम से भी अमोल गुप्ते ने शिक्षकों के मन की मनःस्थिति को समझने की कोशिश की है. गौर करें, तो इस फिल्म में यह भी बात गौर करनेवाली है. शिक्षक व लालची वर्मा की स्थिति भी कभी बचपन में शायद स्टैनली की तरह ही रही होगी. चूंकि दोनों ही किसी न किसी वजह से डब्बा नहीं लाते. स्टैनली जैसे बच्चों की कहानी उन तमाम बच्चों की कहानी है जो पढ़ाई के साथ साथ गुजारे के लिए होटलों में भी काम करते हैं. अमोल गुप्ते ने एक लालची टीचर की भूमिका के साथ पूरी तरह न्याय किया है. उनके हाव-भाव, मेकअप और उनके संवाद वर्माजी के किरदार में बिल्कुल फिट बैठे हैं. पार्थो के रूप में बॉलीवुड को एक और बेहतरीन बाल कलाकार मिला है. दिव्या दत्ता ने अपना किरदार बखूबी निभाया है. फिल्म की एक और खास बात है फिल्म की शुरुआत में फिल्म की कहानी को एनिमेशन के माध्यम से प्रस्तुत करना. इस तरह की फिल्मों से यह उम्मीद जगती है कि जरूरी नहीं कि फिल्म बहुत लंबी हो. अमोल ने इस फिल्म के माध्यम से वर्तमान दौर में बन रही फिल्मों को यह सीख दी है कि वर्तमान दौर में इस तरह की ईमानदार कोशिशोंवाली कहानियों को हिंदी सिनेमा में प्राथमिकता दिया जाना जरूरी है. फिल्म के गीत फिल्म की कहानी के आधार पर बिल्कुल उपयुक्त हैं.
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