20200901

 


वर्ष 2005. फिल्म आई थी लाइफ इन अ मेट्रो. पहला कदम था मुंबई में. यूं ही आई थी बस. फिल्म पत्रकार भी नहीं थी तब. फ़िल्मी प्रीमियर के बारे में अबतक केवल अख़बारों में ही पढ़ा था. मुंबई में मेरा दूसरा दिन था. लेकिन सब कहते हैं न मुंबई अप्रीदेक्त्बेल है, मेरे साथ तो यह संयोग दूसरे दिन ही हुआ. संयोग से लाइफ इन अ मेट्रो रिलीज हुई थी. एक वरिष्ठ और नामचीन फिल्म समीक्षक ने संयोग से पूछ लिया प्रीमियर में जाना है फिल्म के ? मैं और मेरे दोस्त ने फ़ौरन हाँ कहा. जुहू पीवीआर में था प्रीमियर. अब अक्सर यहीं ठिकाना रहता है फ़िल्मी प्रेस शोज का. रात 9 का शो था. हम तीन लोग थे. ऑटो से वहां पहुंचे. अभी ऑटो से उतरे ही थे कि मेरी नजर इरफ़ान खान पर गई. उन्होंने स्लेटी या शायद ब्लैक रंग की कोट पहनी थी. किसी फ़िल्मी हस्ती को इतने करीब से देखने का पहला मौका था. बहरहाल हम, अंदर गये. अंदर गई तो मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम कि भई, ये क्या बला है. छोटे शहर में तो केवल लोगों को भागते देखा था, यहां सीढ़ियां क्यों भाग रही हैं. वह बला जिसे हम ऐक्स्क्लेटर कहते हैं, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था. अभी मेरे साथ आये दोनों लोग तो आराम से चलती सीढ़ियां पर सरपट चढ़े और ऊपर पहुँच गये. मैं नीचे ही उस पर चढ़ने की तमाम कोशिश कर रही थी कि तभी पीछे से एक आवाज़ आई अरे, मैडम डरिये माय, कोई दिक्कत नहीं है. पलट कर देखा तो इरफ़ान थे. उन्होंने कहा अरे डरने की बात नहीं है, आराम से चढ़ जाएँगी और उन्होंने अपना हाथ दिया और साथ ऊपर लेते गये. तो इस तरह इरफ़ान ने मुझे भागती सीढ़ियों पर चढ़ना सीखा दिया. उन्होंने यह  भी बताया कि कुछ नहीं होता, बस एक बार करना होता है, वरना आपके पास ऑप्शन तो होते ही हैं कि सीढ़ी से भी आ सकती थीं. यह कहते हुए वह थेयटर पहुँच कर सितारों के बीच खो गये. लेकिन मेरे जेहन से वह हिस्सा हमेशा के लिए स्थाई हो गया. आज मुंबई में फिल्म पत्रकारिता करते दस साल बीत चुके हैं. फर्क बस इतना आया कि आज भी पीवीआर की उन सीढ़ियों पर न जाने कितनी बार भागी. फर्क यह भी आया था कि कभी इरफ़ान से जान-पहचान न होने के बावजूद उस एक शाम और चंद लम्हों ने सदा के लिए इरफ़ान से मेरा अनोखा रिश्ता जोड़ दिया. फर्क बस इन दस सालों में यह आया कि कभी पीछे खड़े इरफ़ान से अब आँखों में आँखें डाल कर न जाने कितनी बार इंटरव्यू के दौरान बातें हुईं. मगर अब बातें कभी नहीं होंगी, क्योंकि ये जो साली जिंदगी है, ऐसे ही दगा देती है. इरफ़ान खान अब इस दुनिया में नहीं रहे. उन्होंने उस दिन कहा था लाइफ आपको दो ऑप्शन देती है. ये नहीं तो वो सही. लेकिन आपको वह ऑप्शन नहीं मिला इरफ़ान साहब. ये साली जिंदगी का वह दृश्य हम जब भी देखेंगे, मां कसम आप याद आयेंगे जब आपने आधे रास्ते से अपनी  गाड़ी मोड़ ली थी. आप जाना नहीं चाहते थे. फिर भी. इस बार भी ये जो साली जिंदगी है, जिंदगी की चेन आधे रास्ते में ही खींच ली और आपको जिन्दगी की रेस से न चाहते हुए उतरना ही पड़ा.

काश, रोग फिल्म के ही तर्ज पर आप इस हफ्ते के नहीं कईयों गुरुवार बीत जाते और आप नहीं जाते. हम जानते हैं कि आपका मन अभी नहीं ऊबा था. मगर आपका यूं जाना, इस कदर, फिर से बता गई कि ये जो साली जिंदगी है...ऐसे ही दगा देती है.

किस्मत की एक खास बात होती ही है कि वो पलटती ही है. फिल्म गुंडे में उनके इस संवाद में भी उनके मृत्यु की सच्चाई नजर आती है.

अपने सच ही कहा था साहेब बीवी गुलाम में कि आपकी गाली में भी ताली ही पड़ती है. एक कलाकार के लिए इससे बड़ी सफलता और क्या होगी कि उनके हर संवाद में जिन्दगी का सारे रस छिपे थे, जिन्हें उन्होंने खूब मजे लेकर चखे थे. उनके चाहने वाले नम आँखों से उन्हें उनके ही जज्बा के संवाद कि इश्क था इसलिए जाने दिया, कह कर ही संतोष करेंगे.

 वर्ष 2005. फिल्म रिलीज हुई थी लाइफ इन अ मेट्रो. मैं पहली बार मुंबई आई थी. यूं ही आई थी बस. अभी ग्रेजुशन भी पूरा नहीं किया था इस बात को अब 15 साल बीत चुके हैं. तब फिल्म पत्रकार भी नहीं थी. मगर फिल्मों का चस्का तब से था. फ़िल्मी प्रीमियर के बारे में अबतक केवल अख़बारों में ही पढ़ा था. मुंबई में वह मेरा दूसरा दिन था. दिन गुरुवार था. प्रीमियर गुरुवार को ही हुआ करते हैं न. लेकिन सब कहते हैं न, मुंबई बड़ी ही अन प्रिदेक्ट्बल हैमेरे साथ तो यह संयोग दूसरे दिन ही हुआ. संयोग से एक वरिष्ठ और नामचीन फिल्म समीक्षक ने पूछ लिया प्रीमियर में जाना है लाइफ इन अ मेट्रो केमैं और मेरे दोस्त साथ थे. न कहने का तो सवाल ही नहीं था. जुहू पीवीआर में था प्रीमियर. हम ऑटो से वहां पहुंचे. अभी ऑटो से उतरे ही थे कि मेरी नजर इरफ़ान खान पर गई. उन्होंने स्लेटी या शायद ब्लैक रंग की कोट पहनी थी. किसी फ़िल्मी हस्ती को इतने करीब से देखने का पहला मौका था. देखते ही देखते वह रेड कारपेट और तस्वीरों के बीच लीन हो गये. बहरहाल हमअंदर गये. अंदर गई तो मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम कि भईये क्या बला है. छोटे शहर में तो केवल लोगों को भागते देखा थायहां सीढ़ियां क्यों भाग रही हैं. वह बला ऐक्स्क्लेटर थी. जिसे देख कर इस स्मॉल टाउन गर्ल के हाथ-पैर फूलगये थे. मेरा दोस्त फटाक से उस पर चढ़ कर ऊपर पहुँच गया. मैं डरपोक नीचे ही थी. तभी पीछे से एक आवाज़ आई. यह आवाज़ अबतक टीवी पर ही सुना था. अरेमैडम डरिये मतकोई दिक्कत नहीं है. पलट कर देखा तो इरफ़ान थे. उन्होंने कहा अरे डरने की बात नहीं हैआराम से चढ़ जाएँगी और उन्होंने अपना हाथ दे दिया. मेरी आँखें बंद ही थी. आँखें खोली तो इरफ़ान सामने थे. कहे, देखा न आराम से हो गया. मैं थैंक यू वगरेह अभी कहती ही कि उनकी आँखें जो कि हमेशा बात करते हुए लट्टू की तरह नाचती थीं, वैसे ही आँखें घुमाते हुए बोले, मैडम डरने का नहीं, इससे नहीं भी चढ़ पातीं तो सीढ़ियां तो थी ही. बस एक बार करना होता है वरना लाइफ में ऑप्शन हमेशा होते हैं. भूलने का नहीं.  इसके बाद वह फिर से थेयटर के अंदर जाते ही सितारों के बीच खो गये. जब अंदर जाकर फिल्म देखनी शुरू की. मेरी नजर उसी मुस्कान को ढूँढती और मैं मन में खुश होती रही. मुंबई की वह किस्सा हमेशा के लिए मेरे जीवन का स्थाई हिस्सा हो गया. इसके बाद जब वर्ष 2009 में स्थाई रूप से फिल्म पत्रकारिता के लिए मुंबई आई. तो फर्क बस इतना आया कि जिस इरफ़ान से कभी नजरों में बातें हुईं थीं. उनसे कई बार आँखों में आँखें डाल कर बात करने के मौके कई बार मिले. एक बार जब उनको यह किस्सा याद दिलाया तो उन्होंने तबाक से हँसते हुए कहा, अब तो सीढ़ियाँ कम, मोहतरमा आप ज्यादा फ़ास्ट दौड़ती होंगी.  इरफान ने उस दिन कहा था, लाइफ में दो ऑप्शन तो हमेशा होते ही हैं. अफ़सोस कि जिंदगी ने इरफ़ान को वह ऑप्शन नहीं दिया. दोबारा उठने का, दोबारा जीने का. दोबारा जिन्दगी और मौत के बीच पान सिंह तोमर की तरह दौड़ लगाने का. लेकिन एक कलाकार का इससे बड़ा हासिल और क्या होगा कि वह जब-जब अपने अभिनय की कारीगारी दिखाते नजर आये, लोगों ने उन्हें मकबूल किया. और ताउम्र मकबूल ही रहेंगे. ऑप्शन वाली बात उन्होंने शायद बचपन से ही गाठ बाँध ली थी. तभी क्रिकेटर बनने का सपना देखा था. एक सवाल में जब उनसे पूछा था मैंने, क्रिकेटर बनने से पैर पीछे क्यों खींचे, उन्होंने कहा बाप रे बाप क्रिकेट में खाली 11 खिलाड़ी होते हैं. सो, उन्होंने सोचा कि कुछ ऐसा करते हैं, जहाँ गाली भी दें तो ताली पड़े और इस तरह वह फिल्मों में आये. यह इरफ़ान के व्यक्तित्व की खासियत थी कि वह जमीन से जुड़े रह कर भी हॉलीवुड जा पहुंचे, लेकिन उन्हें इस बात का कोई घमंड नहीं रहा. वह हमेशा कहते कि वह किरदार को नहीं, किरदार उनको चुनता है. सिनेमा है ही ऐसा तिलिस्म, तुम्हारी जरूरत है तो पाताल से भी लायेंगे, नहीं जरूरत तो जहनुम में रहो तुम्हें कौन पूछेगा.

इरफ़ान की फिल्मों और उनके संवादों से और उनके चेहरे के हाव-भाव से भले ही लोग यह भ्रम बनाते होंगे कि इरफ़ान सीरियस किस्म के अभिनेता होंगे. लेकिन उनसे हुई तमाम मुलाकातों के बाद आसानी से वह भ्रम टूट जाता था. उस भीड़ में जहां स्टार्स हमेशा अंग्रेजी मीडियम को तवज्जो देते थे. पत्रकारों में भी. इरफ़ान ने हिंदी को कभी नीचे नहीं दिखाया. मुझे याद है. जज्बा फिल्म के प्रोमोशन के दौरान. वक्त कम था उनके पास. अंग्रेजी अख़बारों की लाइन लगी थी. बीच में हमारा नम्बर था. लेकिन पी आर ने कहा अब किसी और दिन, हमने जब पीआरपर गुस्साना शुरू किया. इरफ़ान वहां से गुजरे. हमने इशारों में बात किया. हिंदी शायद हिंदी की भाषा समझ गई. उन्होंने पीआर से कहा और हम अंदर गये. आठ मिनट के इंटरव्यू में शायद आपको खटके कि दिया भी तो आठ मिनट. मगर, सच यह था कि वह आठ मिनट बोले, और क्या खूब बोले, एकदम टू द पॉइंट. इरफ़ान को हिंदी इंटरव्यूज में खूब मजा आता था. उनका एक अलग जुड़ाव तो था छोटे शहर से, छोटे शहरों के आने वाले लोगों से. वह हमेशा इंस्पायर करते थे, यह पूछे जाने पर कि जो आपको आइकोन मानते हैं, उनसे क्या कहना चाहेंगे, वह कहते सपने देखिये, मगर सपने ही देखते मत रह जाइए. मेहनत करनी पड़ेगी. पापड़ बेलने पड़ेंगे, तब सुकून की छत नसीब होगी. वह किस्मत से अधिक हमेशा मेहनत को तवज्जो देते थे.

उस दौर में जब पीआर पत्रकारिता कम हुआ करती थी. इरफ़ान को इत्त्मिनान से बातें करना पसंद था. जाने पर वह पहले इधर-उधर की बात करते थे. हमेशा पूछते और आपका शहर कैसा है, शहर की क्या खबर, सब ठीक-ठाक. एक बार उन्होंने एक बात कही थी, “आप जहाँ से आये हैं. शहर कितना भी छोटा हो आपका. आपके दिल में उसके लिए जगह हमेशा बड़ी होनी चाहिए. मैं तो अंदर से आज भी राजस्थान का हूँ. जब कुछ नहीं करूंगा तब अपने शहर में ही लौट जाऊंगा. अफ़सोस कि आज उस शहर के ही होकर रह गए, जिस शहर से कभी वह भाग जाना चाहते थे. उनके दोस्त तिग्मांशु के कहने पर मगर वह रुके थे. तिग्मांशु ने एक बार कहा था इरफ़ान के बारे में एक्टर लजीज खाने की तरह होता है, एक बार खाओ तो बार-बार मन होता है कि उसको खाएं. इरफ़ान कुछ वैसा ही एक्टर है.

बाद के दौर में उनका फैशन स्टाइल स्टेटमेंट बन चूका था. यह पूछने पर कि अब अपने फैशन पर अधिक ध्यान देने लगे हैं, वह कहते क्या मोहतरमा थोड़ा स्टाइल मरने कातो हमारा भी हक़ है, चेक वाले शर्ट्स कई दिन पहने हैं.

पान सिंह तोमर उनकी जिंदगी की एक अहम फिल्म थी. प्रेस शो देखने के बाद पहला मेसेज किया था उनको. वापस कॉल बैक आया. क्या लगता है लोग टीवी पर आने पर दोबारा यह फिल्म देखेंगे. मुझे हैरानी हुई. मैंने पूछा लोग बॉक्स ऑफिस की बात करते. आप टीवी की बात कर रहे. इरफ़ान के बोल थे. अरे, मैडम बॉक्स ऑफिस में 100 करोड़ कमा लेंगे बड़ी बात नहीं. टीवी पर हजारों, करोड़ों देखते हैं और लॉयल होते हैं. मैं टीवी से आया हूँ. टीवी की अहमियत जानता हूं. बतौर एक्टर इरफ़ान ने अपने हर फिल्म के बारे में यह पूछने पर कि क्या लगता है चलेगी, वह  साफ़ कहते थे कि आपका काम है बतौर एक्टर बस एन्जॉय कीजिये. बाकी लोगों पर छोड़ दीजिये. आज उन्होंने उन्हीं लोगों पर सब छोड़ दिया है. अपनी मकबूल फिल्में, अपनी मकबूल संवाद अदायगी और अपनी मकबूल अदाकारी. इरफ़ान मकबूल थे, इरफ़ान मकबूल रहेंगे

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