उनकी कलम में वह जुबान है कि वह कभी दिल को छिछालेदर करते हैं तो कभी उसी दिल को वह मोह-मोह के धागों में भी बांध देते हैं. वे दुष्यंत की रचनाओं को भी एक नये अंदाज में रेल की पटरियों से गुजरने के लिए दिशा दे देते हैं तो एक फैन की भी आवाज बन कर उसके सुपरस्टार के दिल तक राबता कायम कर देते हैं. उनकी इसी काबिलियत को इस वर्ष राष्टÑीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. फिल्म दम लगाके हईसा के गीत मोह-मोह के धागे के गीतकार वरुण ग्रोवर को इस वर्ष सर्वश्रेष्ठ गीतकार के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है. वे अपनी कामयाबी से खुश हैं. संतुष्ट हैं.
आपको बहुत बहुत बधाई. पहली बार नेशनल अवार्ड जीतने की अनुभूति कैसी है?
खुश हूं. बेहद खुश हूं. काम को सराहना मिलती है तो खुशी होती है. मैं कम काम करना चाहता हूं. लेकिन अच्छा काम करना चाहता हूं. अलग काम करना चाहता हूं. मेरा मानना है कि आपको हजार गाने लिखने की जरूरत नहीं है. साल के अंत में दस ही गाने याद रखे जायेंगे. उन दस में आना है तो अच्छे 10 गाने ही लिख लेना काफी है मेरे लिए.
फिल्म दम लगाके हईसा के गीत मोह मोह के धागे...ने आपको नेशनल अवार्ड का हकदार बना दिया है. इस फिल्म से जुड़ी कौन सी यादें हैं, जो इस वक्त आपके जेहन में आ रही हैं?
सच कहूं तो मेरे जेहन में अनु मलिक के साथ मेरे जुड़ाव की यादें हैं जो शेयर करना चाहूंगा. अनु मलिक मेरे सबसे पहले हीरो रहे हैं. मैं रेडियो में सुनता था. चित्रलोक मैं बहुत सुनता था. सवा 8 बजे से 9 बजे तक़. मेरा स्कूल होता था 9 बजे से.तो हम कोशिश करते थे कि देर से भी पहुंचे स्कूल तो ठीक लेकिन आखिरी गाना भी न छूटे. वैसे स्कूल घर से अधिक दूरी पर था भी नहीं. सो, दौड़ कर पहुंच भी जाते थे. 1992-1998 की बात कर रहा हूं. वह मेरे स्कूल के आखिरी छह साल थे.उसी दौरान विविध भारती मेरे जीवन का अहम हिस्सा बनी थी. अनु मलिक के मैं उन गानों की बात कर रहा हूं, जिसमें वे खुद थे. कुछ और होने की कोशिश नहीं कर रहे थे. जैसे विरासत के गाने, बॉर्डर फिल्म के गाने, करीब के गाने हैं. और उनका सबसे कमर्शियल गीत जो मुझे बेहद पसंद है आज भी वह है...चुरा के दिल मेरा गोरिया चली. वह सब लगता था कि वह न्यू एज है. नदीम श्रवण के गाने थोड़े ट्रेडिशनल होते थे. उनके गानों में आपको ढोलक सुनाई देता था. इनके गानों में नये इंस्ट्रमेंट्स होते थे. पियानो होता था, वॉयलन होते थे. तो उस वक्त से वह हीरो थे मेरे लिए. यहां जब मुझे दम लगाके की स्क्रिप्ट मिली थी. तब तक मुझे पता नहीं था कि म्यूजिक कौन कर रहा है. लेकिन स्क्रिप्ट में ही जो शुरुआत है वह कुमार सानू के गानों से है तो मुझे लगा कि बचपन का जो मेरा कारण था, जिस वजह से मैं यहां हूं. वे लोग हैं कुमार सानू, नदीम श्रवण, अनु मलिक, समीर के तो पूरा माहौल मेरे लिए इस फिल्म में हो गया कि वाह यह तो मेरे लिए बड़ी उपलब्धि है कि मैं फिर से अपना बचपन जी लूंगा. फिर जब बात हुई कि अनु मलिक साहब ही यह करेंगे. पहले था कि वे दर्द करारा ही करेंगे सिर्फ...लेकिन सारे गाने फिर उन्हें ही मिले.तो मैं बेहद खुश था.
फिल्म से जुड़ना कैसे हुआ था?
शरत ने ही मुझे इस फिल्म के लिए चुना था. इससे पहले मैंने आंखों-देखी के गाने लिखे थे. और शरत ने फिल्म देखी थी. गाने सुने थे. मुझे गैंग्स आॅफ वासेपुर लिखने के बाद एक ही फिल्म मिली वह थी आंखों-देखी. और आंखों-देखी के बाद भी मुझे एक ही फिल्म मिली थी. वह थी दम लगाके हईसा. हालांकि इस बीच में कुछ डॉक्यूमेंट्री कटियाबाज जैसी, कुछ और प्रोजेक्ट्स कर रहा था. लेकिन फिल्मों की फेहरिस्त में यही फिल्में शामिल थी.शरत आंखों-देखी की स्क्रीनिंग के दौरान ही मिले थे पहली बार. वही हमारी बातचीत शुरू हुई थी फिल्म के लिए.
मोह-मोह के धागे ने इतिहास रचा है. लेकिन व्यक्तिगत रूप से आपको कौन सा गीत सबसे अधिक प्रिय है फिल्म का?
सबसे ज्यादा मुझे मजा आया था. दर्द करारा लिखने में. क्योंकि फिल्म खत्म होने पर वह गीत आता है. फिल्म अंत में आना था. तो कोई तनाव नहीं था. लेकिन मोह मोह को लेकर यह जरूर बात थी कि इस गाने पर ही सबसे अधिक मेहनत हुई थी.खास कर मेरे साथ कई सालों से हो रहा है कि मुझे जो सबसे ज्यादा पसंद होता है. वह किसी को समझ में नहीं आता है. वह डर था कि ये गाना बहुत अच्छा लग रहा है सुनने में. लेकिन लोगों को शायद ही यह गीत बहुत समझ आये. लोग इसे बाद में सुनेंगे नहीं, प्रोमोट नहीं करेंगे, क्योंकि यह स्लो गाना है. लगा था कि सुंदर सुशील और दर्द करारा ही चलेगी. मार्केटिंग टीम ने सबसे पहले सुंदर सुशील को ही प्रोमोट करना भी शुरू किया था.
गुलजार साहब, जावेद अख्तर और कई मशहूर गीतकार, लेखक आमतौर पर नये लेखकों की प्रेरणा रहते हैं. जाहिर है आप भी किसी से प्रेरित रहे होंगे. लेकिन आपके गानों पर या लेखनी पर किसी की छवि नहीं दिखती. तो क्या यह हमेशा से सोच रखा था कि किसी को हावी नहीं होने देना है खुद पर?
अभी तो मुझे लगता है कि मैं इंस्पायरड नहीं हूं. लेकिन जब मैंने शुरू किया था तो सबसे पहला गाना लिखा था दैट गर्ल इन यलो बुट्स के लिए. और अनुराग कश्यप ने मुझे खुद बोला था कि ऐसा गाना लिखना कि लगे गुलजार ने लिखा है. तो मैंने कहा कि आपकी पिछली फिल्म तो गुलाल आयी है, जिसमें पियूष मिश्रा ने अलग ही ट्रैक के गाने लिखे हैं. और वह भी उतने ही पोयेटिक हैं. तो क्यों मुझे आप बोल रहे हैं. लेकिन अनुराग ने कहा कि नहीं नहीं तुम लिखो. मुमकिन है कि उस वक्त मैं नया था तो उनका कांफिडेंस नहीं रहा होगा कि मैं क्या लिखूंगा तो उन्होंने एक रास्ता दिखाया था. मेरा जो पहला गाना है लड़खड़ाया, पैरों में रस्ता उलझा... तो ये पूरी की पूरी पंक्ति गुलजार साहब की ही लगती है. तो उस वक्त गुलजार होने की कोशिश थी. लेकिन एक प्रोसेस होता है.प्रोसेस से आपको गुजरना ही होगा. पहले दिन ही आप नहीं सोच सकते कि मैं पूरा ही ओरिजनल हूं, क्योंकि वह तब हो सकता है, जब आपको कई सालों की प्रैक्टिस के बाद अपना काम सामने ला रहे हों तब. पहला ही काम सीधे सामने आ रहा है तो वह कहीं न कहीं इंफ्लुएंज्ड होता है. ेलेकिन धीरे-धीरे मेहनत करते करते आप सीख जाते हैं. जैसे वासेपुर के गानों में आप सोच कर भी किसी की तरह नहीं लिख सकते थे. गुलजार जैसा कोई बोले भी तो आप नहीं लिख सकते. जैसे छिछालेदर जैसे गानों की अपनी ही आइडेंटीटी बनती है. लेकिन अब मुझे पता है कि अलग व्वॉस है. इतना मुझे लगता है.
हिंदी कविताओं से आपका राबता कब से है ?
हां, बिल्कुल हिंदी कविताएं मेरे घर में, मेरे माहौल में, मेरे कमरे में हर जगह पर हैं. मेरी डेली रुटीन में सबसे जरूरी चीज हैं. वह कहीं न कहीं आपको मदद करती है. अगर आपने जिंदगी भर दो ही आवाजें सुनी हैं तो आपका दायरा सिमटता जाता है.बचपन में मेरी व्यॉस थेरिपी हुई थी, क्योंकि मेरी आवाज लड़कियों की तरह थी, क्योंकि मेरे सारे रिश्तेदारों में लड़कियां ही लड़कियां हैं तो डॉक्टर ने यही कहा था कि ये सिर्फ लड़कियों से बात करता है, इसलिए इसकी आवाज क्रैक नहीं हुई है.तो कहने का मतलब यह है कि सिर्फ अगर एक ही कवि को फॉलो करूं तो आपका रेंज नहीं खुल सकता.इसलिए कविताएं सब तरह की पढ़ता रहता हूं. खुद को अपडेट करूं कि स्कोप तो दिखे कि कहां तक जा सकता हूं. जैसे बाबा नागार्जुन ओम लिखते हैं तो क्यों लिखते हैं. यह जानने के लिए आपको उस रेंज तक जाना जरूरी है. वरना आप अपने ही दायरे में खुश रहते हैं. आपको रेंज तलाशनी होंगी. यही नहीं मैं कविताओं के साथ साथ गानों का संग्रह भी हमेशा साथ रखने की कोशिश करता हूं. स्कूल और कॉलेज के दिनों से ही हम अंत्याक्षरी में मुखड़ों की नहीं अंतरों की खेलते थे कि किसको पूरा अंतरा आता है. संतोष आनंद मुझे लगता है कि उन्होंने कमाल का काम किया है. लेकिन उन्हें वह शायद उस तरह से लोगों ने याद नहीं किया है. तो इन लोगों के काम को भी देखता सुनता रहा हूं.
आपके गानों में आपके अलग से शब्दकोश होते हैं. जैसे छिछालेदर, जबरा...तो इस तरह के शब्दों को कैसे इजाद करते हैं?
नहीं, छिछालेदर तो मेरे शब्द नहीं हैं. चलन में शब्द है यह बहुत. मुझे लगता है कि यह स्क्रिप्ट से ही निकलता है. जैसे वुमनिया निकलता था तो स्क्रिप्ट से निकला था.या फिर उस माहौल से आया था.चूंकि मेरे बहुत बिहारी दोस्त थे. तो नर्भसाओ, फ्रस्टिआओ बोलते थे. बिहारी में अंगरेजी और हिंदी का मिश्रण बोलते हैं तो वहां से आया था. जबरा की जगह हम तगड़ा सोच रहे थे. तगड़ा शब्द मुझे बहुत पसंद है.हिंदी फिल्मों में नहीं आया है. लेकिन बात करते करते आया. जबरा बोला और विशाल ने वह गा दिया.और फिर मैंने यूं ही राइम करने को कहा. लेकिन बात हुई कि यह तो शब्द नहीं है. लेकिन विशाल ने कहा कि पोयटिक लाइसेंस लिया कि समझ आ रहा है कि चलो रखें. बाद में पता चला कि गुजराती लोग जबरा शब्द का प्रयोग वहां जबरदस्त के लिए होता है. तो मेरे लिए काफी अच्छा हुआ. उन्होंने हर भाषा में जबरा का इक्वीवेलेंट शब्द खोजा है तो वह मेरे लिए खास बात रही है.
क्रियेटिव पर्सन होने के बावजूद कई लोग सामाजिक मुद्दों पर राय देने से कतराते हैं. लेकिन आप हमेशा स्टैंड लेते नजर आये हैं.
मेरे दोस्त हैं संजय रजौड़ा वह मुझे हमेशा कहते हैं कि अगर आप पॉलिटिक्स को चूज नहीं करते. तो पॉलिटिक्स आपको चूज कर लेगी.तो मैं पहले ब्रैकेट में रहना चाहता हूं कि ये मेरी पॉलिटिक्स है. बजाय इसके कि मेरा चुप रहना मेरी पॉलिटिक्स हो जाये. फिर लोग खुद थोपने लगें.अगर आप अवेर हैं तो आपको कहना ही होगा. मुझे इधर उधर खेमे में नहीं जाना है.
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