20150818

छोटा परदा : गुलजार और उनके किरदार

 टीवी के विभिन्न चैनलों पर बढ़ रहे शो भले ही अब एकरसापन का अहसास कराते हो, ज्ञान और मनोरंजन की तलाश में भटकते को एकरंगा बनाते हो लेकिन ज्यादा नहीं, कुछ ही वर्ष हुए, जब घर—घर पहुंचनेवाले इस छोटे परदे पर साहित्य में समाये और छुपे पन्नों को पलटकर सामने लाने का दौर था. उसे छोटे परदे का स्वर्णीम दौर कहते हैं लोग और उन्हीं स्वर्णीम दिनों में कई सुनहरे पन्नों को जोड़कर एक शख्सियत ने उस दौर के मान—सम्मान—प्रतिष्ठा और लोकप्रियता को और स्थापित कर दिया था. वह शख्स कोई और नहीं, गुलजार थे. गुलजार हैं. इस नाम के बाद उनके परिचय की दरकार शायद ही किसी को हो. वही गुलजार, जो गीतकार भी हैं, फिल्मकार भी हैं, शायर भी हैं, कहानियों को पीरोनेवाले अफसानानिगार भी हैं और अपनी गंभीर लेकिन जादुई आवाज और अंदाज से बेजान वाक्यों को भी जिंदादिल बनानेवाले नारेटर—कमेंटेटर—स्टोरीटेलर भी हैं. और भी न जाने कितने हुनर—फन और अदा से नवाजा है उन्हें खुदा ने.गुलजार की इच्छा थी कि वे गालिब पर फिल्म बनाये. उसी इच्छा को मूर्त रूप दिया छोटे परदे के खुलते बड़े संसार ने. गुलजार को मौका मिला, या यूं कहिए कि उन्होंने अवसर की तलाश की और छोटे परदे पर ही मिर्जा गालिब की जिंदगी को जीवंत कर दिया. तीन घंटे की फिल्म 17 एपिसोड्स के रूप में दर्शकों के सामने आयी और दिल में उतर गयी. और लोगों के दिल में इस कदर घर कर गयी कि अगर लोगों ने किसी विजुअल माध्यम के जरिये मिर्जा गालिब के दर्शन किये तो वह मिर्जा गालिब के धारावाहिक से ही. शायद ही किसी ने अपनी कल्पनाशीलता की दुनिया में फूलों को चड्डी पहने देखा होगा. लेकिन बात जब उन्होंने बच्चों तक पहुंचायी तो बच्चे भी मान बैठे कि हां, फूल चड्डी पहन कर ही खिलते हैं. यह उनका ही जादू था कि जब वे किरदार धारावाहिक को लेकर छोटे परदे पर आये तो उन्होंने कई नये कलाकार, नये किरदार गढ़ दिये जो आज भी प्रासंगिक है. प्रेमचंद की कहानियां जिन्होंने सिर्फ पढ़ी थी, उन्हें भी परदे पर जीवंत रूप दे दिया. दरअसल, हकीकत यही है कि गुलजार एक ऐसी शख्सियत हैं, जिन्होंने साहित्य, सिनेमा के क्षेत्र में एक रुआब हासिल करने के साथ साथ इन बातों को कभी नजरअंदाज नहीं किया कि वे किस माध्यम पर कहानियां सुना रहे हैं. यही वजह है कि छोटे परदे पर उनके सारे प्रयास सफल रहे. टेलीविजन की दुनिया का यह सौभाग्य रहा कि किसी दौर में इससे गुलजार साहब जुड़े और उन्होंने मिर्जा गालिब, प्रेमचंद की कहानियां, किरदार, गुब्बारे जैसे धारावाहिकों के गीत लिखे. गुलजार साहब के जन्मदिन के बहाने उनके ही गढ़े किरदार व सहयोगी कलाकार गुलजार साहब के साथ बिताये पलो  व अनुभवों को अनुप्रिया अनंत के साथ साझा कर रहे हैं. 



तसल्ली है कि मिर्जा गालिब धारावाहिक  बना पाया : गुलजार
मिर्जा गालिब का मैं प्रशंसक स्कूल के जमाने से ही हुआ. हमारे स्कूल में मौलवी साहब शायरी सुनते और सुनाते थे. वे एक एक शायरी पढ़ते और फिर उसके मायने समझाते थे.उनकी वजह से गालिब को जाना. गालिब को मैं अपने घर के किसी बुजुर्ग की तरह मानता हूं. एक ऐसा बुजुर्ग जिसके साथ आप वक्त बिताना चाहेंगे. जिसके सानिध्य में आप कुछ सीखना चाहेंगे. गालिब की शायरी आम आदमी की शायरी है. वह आपके स्तर पर आकर बातें करते हैं. मुझे लगता है कि गालिब जैसी शायरी उर्दू में और किसी के पास नहीं है. यही वजह है कि आप जब बड़े हो रहे हैं, तब भी लगता है कि वह आपकी बात कर रहे हैं और जब आप बड़े हो गये हैं तब भी आपकी बात कर रहे हो. गालिब की शख्सियत में वह बात थी कि मैं स्कूल से लेकर जब समझदार हुआ. तब तक उनकी शख्सियत से प्रभावित हो रहा और मेरी दिली ख्वाहिश थी कि मैं गालिब पर एक फिल्म बनाऊं.लेकिन जिस वक्त कोशिश की, कोई उन पर फिल्म बनाने के लिए तैयार नहीं था. लेकिन शायद मुझे गालिब को उनका ऋण चुकाना था. जो सीखा था. उन्हें लौटाना था. सो, मेरा सौभाग्य था कि मुझे दूरदर्शन के डायरेक्टर जेनरल थे एएस तातारे. उन्होंने कहीं फाइल में मेरा एप्लीकेशन देखा.उन्हें प्रोपोजल पसंद आया और उनका खत आया कि क्या अभी भी आप गालिब पर काम करना चाहते हैं. मेरे लिए यह एक बड़ी खुशखबरी थी, कि आखिरकार मुझे प्लैटफॉर्म मिला. मैंने स्क्रिप्ट लिखी और जमा भी किया. मुझे खुशी इस बात की है कि मैंने गालिब धारावाहिक को बनाने में किसी तरह का समझौता नहीं किया. मैं जैसा चाहता था वैसा बना पाया और यह मेरे जीवन की बड़ी उपलब्धि में से एक है. शायद ही फिर कभी वह टीम मिले. मुझे जगजीत का साथ, नसीर का साथ मिला.  फर्क सिर्फ इतना था कि मैं फिल्म बनाना चाहता था तीन घंटे की. लेकिन साढ़े छह घंटे का धारावाहिक बनाया. जो 17 एपिसोड में पूरा हुआ. 

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उन्होंने अपने सुनने, देखने वालों की कभी अनदेखी नहीं की  : गुलजार
सलीम आरीफ, गुलजार के करीबी मित्र और कई प्रोजेक्टस में गुलजार साहब के साथ जुड़े रहे. अब भी उनके कई कार्यों में सहयोग, 
मिर्जा गालिब, किरदार,  प्रेमचंद की कहानियां धारावाहिकों के निर्माण में अहम योगदान
मैंने उनके साथ पहला काम मिर्जा गालिब किया था. इस धारावाहिक में मैंने कॉस्टयूम व सेट दोनों ही डिजाइन किया था. निर्माण कार्य में भी गुलजार साहब के साथ रहा. मुझे याद है...मेरी पहली मुलाकात गुलजार साहब से श्याम बेनेगल के आॅफिस में हुई थी. उस वक्त मैं इस क्षेत्र में नया था और भारत एक खोज कर रहा था. मुझे पता चला कि गुलजार साहब मुझे ढूंढ रहे हैं. एक नये लड़के के लिए इससे बड़ी बात क्या होगी कि उन्हें गुलजार साहब ने याद किया है. पहली मुलाकात वही हुई. फिर उन्होंने एक बार अपनी फिल्म इजाजत देखने के लिए स्क्रीनिंग पर बुलाया और वही कहा कि मैं मिर्जा गालिब करने जा रहा हूं. आप भी मेरे साथ जुड़ जाइए. मेरे लिए वह सपने को सच करने जैसा था. मैं उनके साथ जुड़ गया और धीरे धीरे हमारा आत्मीय रिश्ता बना. गुलजार साहब आज भी मानते हैं कि टेलीविजन पर उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि मिर्जा गालिब है. उन्होंने इसे बेहद प्यार से बनाया था. मिर्जा गालिब भले ही टीवी पर प्रसारित हुआ. लेकिन किसी फिल्म से कम मेहनत से नहीं बना था वह धारावाहिक़ एक एक सेट को अलग तरीके से तैयार किया था हमने. मैं तो मानता हूं कि उस दौर में गुलजार साहब ने जो टीम तैयार की थी वह भी अदभुत थी. मनमोहन सिंह जी जो यश चोपड़ा की लगभग हर फिल्म में सिनेमेटोग्राफी करते थे. वे इस शो में हमारे साथ थे. किसी दौर में अंधेरी में वह फिल्मालय स्टूडियो हुआ करता था. जहां गालिब के घर का सेट हमने तैयार किया था. आज वहां सड़कें निकल आयी हैं.इस शो की खासियत यह थी कि इस शो पर किसी प्राइवेट या किसी मार्केटिंग हथकंडों का साया नहीं पड़ा. गुलजार साहब जैसा शो बनाना चाहते थे. उन्होंने उसे पूरी आजादी से बनाया. उस वक्त उन्हें यह कोई नहीं समझाता था कि स्क्रिप्ट में यह बदल देते हैं तो मार्केटिंग तौर पर यह शो अधिक प्रचलित होगा. कोई यह नहीं कहता कि फेरबदल करते हैं तो शो अधिक हिट होगा. यही वजह है कि गुलजार साहब ने इस शो में अपना दिल दिया था. साथ ही उन्हें जगजीत सिंह जैसे महारथी मिले. नसीरुद्दीन शाह जैसे एक्टर ने अपने अभिनय से मुहर लगायी. गुलजार साहब तब भी मानते थे. आज भी मानते हैं तकनीक किसी कहानी की आत्मा नहीं हो सकती.यह हकीकत भी है.उस वक्त उन्हें जितनी आजादी मिली. इसलिए मिर्जा गालिब जैसे शो ने मुकाम हासिल किया और आज भी लोग इसे डीवीडी पर देखना पसंद करते हैं. गुलजार साहब की एक खासियत थी कि वह बतौर निर्देशक हर किसी के काम में दखल नहीं देते थे. बल्कि वे निर्धारित विभाग पर काम छोड़ते थे और विश्वास भी रखते थे. मुझे याद है, मैं तो नया नया था. लेकिन एक अभिनेत्री ने जिद्द कर ली थी कि वह कॉस्टयूम नहीं बदलेगी जो मैंने उन्हें दिये थे. लेकिन गुलजार साहब जानते थे कि मैं सही हूं और किरदार के मुताबिक मेरे कॉस्टयूम जरूरी है तो उन्होंने उस एक्ट्रेस को कहा कि आप कॉस्टयूम बदल आयें. तभी आगे शूटिंग होगी तो इस बात ने मुझे एहसास दिलाया था कि वे अपने क्रू पर कितना विश्वास करते हैं और ऐसे निर्देशक के साथ काम करके आपको खुद पर भी धीरे धीरे आत्मविश्वास आता है कि आप ठीक तरीके से काम कर रहे हैं. मैंने उनके साथ मुंशी प्रेमचंद्र और किरदार धारावाहिकों में भी साथ काम किया. मुझे यह भी याद है कि जब वे माचिस बनाने जा रहे थे तो मुझे उन्होंने मुझसे बिना पूछे मेरे नाम का चेक तैयार करवा दिया था और मुझमें यकीन जताते हुए कहा कि मैं फिल्म बनाने जा रहा हूं. वहां भी मेरे साथ काम किजिए.गुलजार की यह खूबी है कि वह अपने सामने वालों को भी सुनते हैं. उन्हें बोलने का हक देते हैं. वे आज जिस मुकाम पर हैं. खुद को सर्वोपरि मान सकते थे. लेकिन वे ऐसा कभी नहीं करते, गुलजार साहब की यह भी खूबी है कि वह रुढ़िवादी सोच के नहीं हैं. वे यह सोच कर नहीं बैठ गये हैं कि उन्हें बिड़ी जलइके नहीं लिखना है या उन्हें कजरारे नहीं लिखना है. वे आज की पीढ़ी से भी कदमताल करते चलते हैं. उनके मन में किसी तरह का मलाल नहीं है. शिकायत नहीं है.इसलिए उनके बोल पर्सनल से सवाल करते हैं...तुम्हारे लैपटॉप और अपना दिल जैसे शब्द होते हैं. जो बनावटी नहीं हैं. आम बोलचाल की भाषा है. इसलिए हर वर्ग को आकर्षित भी करते हैं.गुलजार साहब की खूबी है कि वे आसपास की चीजों को, माहौल को गहराई से देखते हैं. महसूस करते हैं. उसके कारणों को समझते हैं.उन्होंने प्यूरिटी की कद्र करते हुए इस बात का ध्यान रखा है कि वे जो लिख रहे हैं. किसके लिए लिख रहे हैं.कौन सुनने वाला है. सो, उन्होंने अपने सुनने, देखने वालों की अनदेखी नहीं है. यही वजह है कि जब माचिस में एक आतंकवादी की कहानी होती है तो उसके उजड़े घर को भी दिखाया जाता है. चूंकि गुलजार साहब ने महसूस किया है कि जब घर उजड़ता है तो क्या दर्द होता है. वे समाज की बात करते हैं और सरलता से करते हैं. उनकी बातें भाषण नहीं लगतीं. इसलिए दिल को छूती है. ऐसा लगता है कि वे आपके बीच के हैं. गुलजार साहब अपने अकेले समय से भी बेहद प्यार करते हैं. और वाकई वे अपने एकांत समय में अधिक रहना पसंद करते हैं. तभी इतना गढ़ पाये हैं. गुलजार साहब जितना संतुष्ट व्यक्ति मैंने आज तक नहीं देखा है, जिन्होंने अगर एक दुनिया से खुद को काटा यानी फिल्म के निर्देशन से तो उन्हें अफसोस नहीं. वह दूसरे सृजन में व्यस्त हो गये हैं. वे साहित्य पर लगातार काम कर रहे हैं. पूरे देश की जितनी आंचलिक भाषा हैं. वे उसका संग्रह तैयार कर रहे. टैगोर पर उन्होंने काफी काम जारी रखा है.मैंने उनसे जीवन में यह दर्शन हासिल किया है कि आप जजमेंटल न हों. कोई व्यक्ति अगर कुछ गलत करता है किसी वक्त तो उस वक्त उसके हालात देखें. उस आदमी के सरोकार को समझें.उनकी सेंसिटिवीटी समाज के प्रति उन्हें औरों से अलग बनाती है.उन्होंने सिनेमा से उस वक्त दूरी बना ली, जब उन्हें महसूस हुआ कि जो वह दिखाना चाहते हैं. जिस तरह दिखाना चाहते हैं. उस पर कॉरपोरेट दुनिया हावी होगी. वे उसके साथ सही तरीके से न्याय नहीं कर पायेंगे. सो, वह किताब व साहित्य की दुनिया में लौट गये. और वे बेहद खुश और संतुष्ट हैं. आनेवाले समय में गुलजार साहब जिस तरह टैगोर के कामों को रिइंट्रोडयूस करेंगे वह साहित्य जगत में विलक्षण काम है. गुलजार साहब ने जब भी जहां भी काम किया है. पूरी शिद्दत से किया है. उनके टेलीविजन के योगदान को हमेशा याद किया जायेगा. वह सभी धारावाहिक मील का पत्थर हैं और आज भी यादगार रहेंगे.

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मीता वशिष्ट, अभिनेत्री, किरदार सीरिज में अहम भूमिका

गुलजार साहब ने मुझे मेरी जिंदगी का श्रेष्ठ किरदार दिया 
गुलजार साहब के साथ काम करना एक सपने को पूरा होने जैसा था. गुलजार साहब के धारावाहिक किरदार की कहानी में मैंने जो किरदार निभाया है. वह अब तक मेरे द्वारा निभाया मेरा सबसे अजीज किरदार है. अहमद नदीम काशिमी की कहानी आलना का किरदार मैंने निभाया था. किरदार में मैं एक चुलबुली सी किरदार हूं, जो खूब बातूनी है. खूब चंचल है. जो मन में आता है. बोल देती है. वह एक नौकरानी है. और घर के मालिक से प्रेम कर बैठती है. लेकिन उसे सीमाएंं पता है. उसे नहीं तोड़ती. यह कहानी ही कितनी प्यारी सी प्रेम कहानी थी और जब इसे गुलजार साहब ने निर्देशित किया था तो इसकी खासियत कितनी बढ़ गयी होगी. आप इसका अनुमान लगा सकते हैं. मैं खुशनसीब हूं कि टेलीविजन के उस दौर में मैं सक्रिय रही. जब टेलीविजन का बेहतरीन दौर था. हर प्रोजेक्ट प्रोजेक्ट की तरह नहीं देखा जाता था. प्यार और परिवार की तरह देखा जाता था. यही वजह है कि गुलजार साहब के शो आज भी पसंद किये जाते हैं. मुझे याद है मैं  गोविंद निहलानी जी की  फिल्म द्रोहकाल कर रही थी, साथ ही ओम पुरी जी के साथ तर्पण भी कर रही थी. हम शूटिंग कर रहे थे और उसी वक्त ओम पुरी जी मेरे पास किरदार धारावाहिक की स्क्रिप्ट लेकर आये. उन्होंने कहा कि लो आलना की स्टोरी है. गुलजार साहब निर्देशित करना है. मैं चौंकी मैंने पूछा कि क्या मैं गुलजार साहब के साथ काम करूंगी. ओम पुरी जी ने कहा तो और नहीं तो मैं क्यों स्क्रिप्ट दे रहा तुम्हें. बस फिर क्या था. मैं फौरन गुलजार साहब के पास चली गयी. गुलजार साहब ने कहा कि तुम्हें आलना की तरह डायलॉग बोलना है. किरदार में ढलना होगा. फिर उन्होंने कहा कि मीता तुम्हें जैसा लगे. तुम अपनी तरह से किरदार को जियो. उन्होंने विश्वास भी जताया.और यही वजह है कि मुझे लगता है कि आलना मेरा अब तक का श्रेष्ठ किरदार है. उस दौरान जब हम डबिंग में जाते थे. वहां भी मुझे सभी का सपोर्ट मिलता था. मुझे याद है गुलजार साहब ने मुझे बताया कि उनके पाकिस्तान में दोस्त हैं, जिन्होंने मेरा धारावाहिक देखा था और उन्होंने वीडियो में आलना के लिए तारीफें भेजी थी. वह मेरे लिए एक बड़ा रिवार्ड था, जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती. वह दौर ही बेहद खास था. हम इत्तमिनान से शूटिंग करते थे. मड आइलैंड में शूटिंग हुआ करती थी. गुलजार साहब के साथ काफी कुछ सीखा. अनुशासन के साथ क्रियेटिवीटी कैसे बनाये रखी जा सकती है. गुलजार साहब ने ही सिखाया.मुझे किरदार में ही एक और कहानी में काम करने का मौका मिला, गुलजार साहब ने दोहराया. यही मेरी कामयाबी थी. वे आज भी जब भी मिलते हैं स्नेह से मिलते हैं. गुलजार साहब का टेलीविजन जगत में बड़ा योगदान यही है कि उन्होंने जितने उल्लेखनीय काम किये हैं.वे आज भी प्रासंगिक हैं. हमें शुरुआती दौर में ही अपने सानिध्य में उन्होंने शामिल किया, जिससे आगे हम काफी लाभान्वित हुए. 
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ओम पुरी 

 आज भी हमारी चाय बिना रस्क के पूरी नहीं होती : ओमपुरी, किरदार सीरिज के सारे एपिसोड में मुख्य किरदार
मुझे याद है.हम आरएम कॉलोनी में कहीं शूट कर रहे थे. वही से एक फेरीवाला पहले जैसे फेरीवाले बक् सा लेकर जाया करते थे. वह लेकर जा रहा था. मैंने उसे रोका. पूछा जरा रुको, क्या है तुम्हारे इस बक् से में. तो उसने कहा जनाब रस्क है( ब्रेड की टोस्ट बिस्किट)...मुझे रस्क बेहद पसंद है. तो मैंने कहा उतारो. जरा दे दो मुझे. वही पास बैठे गुलजार साहब मेरी बातें सुन रहे थे. वे आये मेरे पास और आकर बोले, तो जनाब आप भी रस्क के शौकीन हैं. यह तो मुझे भी बेहद पसंद है. और उस वक्त से लेकर आज तक हमारी मुलाकातें बिना रस्क का स्वाद चखे नहीं होती है. हम आज भी जब उनके घर पर होते हैं, तो हमारी बातचीत का हिस्सा रस्क होता है. गुलजार साहब ने जब किरदार के बारे में मुझे बताया था तो उन्होंने मुझे कहा था कि तीन चार कहानियां कर लो. लेकिन मुझे किरदार इस कदर भा गया था. उसकी सारी कहानियां इस कदर पसंद आयी कि मैंने कहा कि नहीं मैं तो सारी कहानियां करूंगा. गुलजार साहब ने कहा लेकिन सबमें तुम्हारी भूमिका बड़ी ही न होगी. तो मैंने कहा कोई बात नहीं, आपके साथ काम करना है. मुझे लगता है कि टेलीविजन के लिए कुछ बेहतरीन काम किया है, तो मेरे बेहतरीन कामों में से एक रहा वह सीरिज़. आप गौर करें कि किस तरह उस दौर में साहित्यिक कहानियों को छोटे परदे पर दिखाया जाता था और आज भी वे किस कदर प्रासंगिक है. मैंने उस दौर में भारत एक खोज,राग दरबारी, मिस्टर योगी जैसे धारावाहिकों में भी काम किया और आज ये सभी धारावाहिक यादगार धारावाहिक हैं. टेलीविजन के इतिहास में ये सारे शोज याद रखे जायेंगे, क्योंकि इन्हें उस दौर में शिद्दत से बनाया जाता था. किसी टीआर पी के लिए नहीं बनाया जाता था. उस दौर में जब लोगों के लेटर्स आते थे. और मेरे किरदार के किरदारों की वह तारीफें करते थे. तो बांछे खिल जाती थी. गुलजार साहब ने बतौर एक्टर मुझे एक बड़ी जिम्मेदारी दी थी और मैं समझता हूं कि मैंने उसे पूरा भी किया. गुलजार साहब ने जो एक बात मैं आज भी सीखता हूं कि वे बेहद अनुशासित हूं. उनके लिए दिन रविवार या सोमवार नहीं होता. वे आज भी नियमित सुबह टेनिस वगैरह खेल कर स्रान कर अपनी स्टडी टेबल पर बैठ जाते हैं और फिर अपना कार्य शुरू कर देते हैं कि अब उन्हें क्या करना है. अपनी रचनाशीलता में वे मग्न हो जाते हैं और यही वजह है कि वे आज भी कामयाब हैं. गुलजार साहब का वह गीत दिल तो बच्चा है जी उन पर बिल्कुल फिट बैठता है. आप कभी गुलजार साहब को नजदीक से जाने तो महसूस करेंगे कि वे बच्चों से किस तरह जुड़ाव महसूस करते हैं और उनकी तरह ही बच्चे बन जाते हैं. मुझे याद है मेरा एक किरदार था चुड़ा पंजाबी का...उन्होंने मोहब्बत में मुझे वही नाम दे दिया था. वह मुझे उस वक्त चुड़ा पंजाबी कह कर ही बुलाते थे.उन्होंने मुझे प्यार से कई नाम दे रखे हैं और मैं खुशनसीब हूं कि मुझे किरदार के अलावा और भी कई प्रोजेक्ट्स में उनके साथ काम करने का मौका मिला.
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अन्नया खरे, अभिनेत्री
्रमेरे लिए फ्लैशबैक गढ़ा : अन्नया खरे
मुझे लगता है कि गुलजार साहब ने जो भी काम टेलीविजन पर किया है वह कभी पुराना नहीं हो सकता. चूंकि उनका सारा काम ह्मुमन इमोशन से जुड़ा हुआ है. मुझे याद है. मैं उस वक्त कॉलेज में थी. दिल्ली में थी. वहां मैंने मुंशी प्रेमचंद्र की लिखी कहानी निर्मला में काम किया था. वहां मुझे ऋषि दा(ऋषिकेश मुखर्जी) ने देखा था. तो ऋषि दा गुलजार साहब ने साथ बहुत काम किया था. दोनों करीब थे. तो उनकी वजह से मेरी मुलाकात हुई थी. दरअसल, मैं मुंबई जया बच्चन जी की वजह से आयी थी. उन्होंने ही एक्टिंग के लिए बुलाया था. जयाजी भी ऋषि दा की नजदीकी थी. तो यो गुलजार साहब से मिलने का संयोग बना. गुलजार साहब की इच्छा थी कि मैं किरदार में काम करूं. लेकिन उन्होंने मुझे कहा कि बेटा, तुम तो अभी बहुत यंग हो. और मेरे किरदार में उम्रदराज महिला का किरदार है. सो, यह सही नहीं होगा. तुम्हे नहीं करना चाहिए. मैंने गुलजार साहब से कहा मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं करूंगी. गुलजार साहब को जहां तक मुझे लगता है मेरा जज्बा पसंद आया था और उन्होेंने मेरी उम्र का लिहाज करके अपनी स्क्रिप्ट में तब्दीली रखी और किरदार में मेरा युवा जीवन भी दिखाया. ताकि मेरे साथ न्याय हो सके. लोग मुझे युवा कलाकार के रूप में भी देखे. इससे आप महसूस कर सकते हैं कि एक निर्देशक अपने कलाकार की कितनी चिंता करता है कि उसके साथ न्याय हो. ताकि उसे आगे के काम में मुश्किलें न आये. यह प्यार अपनापन तो गुलजार साहब जैसे निर्देशक ही दिखा सकते हैं.  गुलजार साहब ने इतना प्यार भरोसा दिखाया. यही बहुत है. उन्होंने फिर मुझे दोबारा अगली कड़ी में भी दोहराया. और यही मेरे किरदार की कामयाबी का श्रेय था. मुझे लगा कि उन्होंने दोहराया है तो उन्हें कुछ तो बात लगी होगी. गुलजार साहब मुस्कुरा कर अपनी संतुष्टि जताते थे.एक कलाकार के लिए वही उसका परिणाम फल होता था. खास बात यह थी उस जमाने में तकनीक स्क्रिप्ट पर हावी नहीं थी. उन्होंने जो नजरिया उस दौर में टेलीविजन को दिया. वह उस समय से आगे था. लेकिन आज भी प्रासंगिक है. मैं आज उस फुरसत में बनाये गये धारावाहिकों को, जिसे काफी प्यार से बनाया जाता था. उस धैर्य, उस रिसर्च वाले शोज को बहुत मिस करती हूं
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यों बना चड्डी पहन कर फूल का संयोग
टेलीविजन पर बच्चों के लिए जंगलबुक के लिए गाना लिख पाया. इसे खास मानता हूं. इसलिए भी खास मानता हूं कि इसी गाने के साथ मेरे प्रिय विशाल भारद्वाज के साथ मेरे काम का आगाज हुआ था. विशाल ने उसमें संगीत दिया था. विशाल मुझे दिल्ली में मिले थे. वहां मुझसे जब पहली बार मिले थे. उन्होंने बताया कि उन्हें कैसे मेरी रचनाएं कंठस्थ हैं. विशाल उन चंद लोगों में से एक है, जिसे शायरी, पोयटरी की समझ है. और मैं खुश हूं कि मुझे उसके रूप में एक अच्छा साथी मिला. विशाल मेरे दिल के बेहद करीब है और इसलिए जंगल जंगल बात चली है. हमेशा खास रहेगा.
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1.टैगोर की लिखी रचनाओं को बच्चों तक पहुंचाने की कोशिश है.बच्चों के लिए साहित्य कम है. उनके लिए साहित्य पर काम करना पसंद है.
2.शायरी कभी पाठयक्रम में शामिल नहीं की गयी है. लोगों ने जिन शायरों को खुद व्यक्तिगत तौर पर  पढ़ा है, सिर्फ उन्हें ही जानते हैं. जबकि पोयटरी आज भी रेलेवेंट है. शायरी आज भी रेलेवेंट है.उन शायरी को कई भाषाओं में ट्रांसलेट कर लोगों तक पहुंचाने की है कोशिश.
3. जैसा महसूस करता हूं. वही पन्नों पर गढ़ता हूं.

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