20120730

मर्यादापुरुषोतम नायक की छवि


कुछ दिनों पहले निर्देशक अनुराग बसु से बातचीत हो रही थी. बातों बातों में शाइनी अहूजा की बात छिड़ी. बतौर अभिनेता शाईनी को अनुराग ने ही अपनी फिल्म गैंगस्टर से लांच किया था. फिर उन्हें लाइफ इन मेट्रो में भी मौका दिया.वास्तविक जिंदगी में बनी अपनी नकारात्मक छवि के कारण इन दिनों बॉलीवुड में मौके नहीं मिल रहे हैं. अनुराग को इस बात का दुख था कि एक अच्छे अभिनेता को काम नहीं मिल रहे हैं. दरअसल, शाईनी बेहतरीन होते हुए भी अब फिल्मों में एक नायक के रूप में खुद को साबित कर पाने की स्थिति में नहीं हैं. चूंकि भारत में विशेष कर हिंदी सिनेमा के दर्शक अपने फिल्मों के नायक में भी पुरुषोत्तम श्री राम को तलाशते हैं.वे जिस तरह से उन्हें परदे पर देखते हैं. वे चाहते हैं और भारत की आधी आबादी यही सोचती भी है कि फिल्मों में सकारात्मक दिखने और इंसाफ न्याय के लिए लड़नेवाला उनका नायक वास्तविक जिंदगी में भी ऐसा ही होगा. यही वजह है कि अगर इसके विपरीत उन्हें वास्तविक जिंदगी में अपने नायक की नकारात्मक छवि देखने को मिलती है तो वे जिस तरह नायक को पलकों पर बिठाते हैं पलक झपकाते ही उन्हें उतार भी देते हैं. यही वजह है कि अभिनेता अभिनेत्री कभी अपनी गलत छवि लोगों के सामने प्रस्तुत नहीं करना चाहते. विवेक ओबरॉय दो फिल्मों के बाद ही कामयाब हो गये थे. लेकिन उनपर स्टारडम का भूत चढ़ गया था. वे अपने सीनियर के साथ भी बदतमीजी-मारपीट करते थे. आज आलम यह है कि उन्हें न तो मीडिया पसंद करती है न ही दर्शक . एक नायक की परदे से इतर वास्तविक छवि ही होती है कि वह मरने के बाद भी वे उसी रूप में याद किये जाते हैं. दिलीप साहब व कई लीजेंडरी आज सक्रिय नहीं. लेकिन जब भी उनकी बात होती है तो इज्जत से सभी का नाम लिया जाता है. चूंकि अंतत: सम्मान ही  आपकी   सबसे अहम पूंजी होती है.

और भूत बंगला बना काका का आशीर्वाद


राजेश खन्ना की मृत्यु के बाद कयास लगाये जा रहे हैं कि उनकी बेटियां उनके बंगले आशीर्वाद को राजेश खन्ना म्यूजियम में बदल देंगी. फिलवक्त कुछ तय नहीं है.  कुछ दिनों पहले राजेश ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि मेरी बेटियां सुखी संपन्न हैं. उन्हें मेरे बंगले या प्रॉपर्टी की जरूरत नहीं. लेकिन यह उन पर निर्भर करता है कि वे इसका क्या करती हैं. लेकिन मेरे लिए आशीर्वाद धरोहर है और रहेगा. शायद राजेश की बेटियां अपने पिता की इस धरोहर को सहेज कर रखें. चूंकि पिता की धरोहर को सहेज कर रखना उनके औलाद की ही जिम्मेदारी है. आशीर्वाद हमेशा ही हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार के महल के रूप में याद किया जायेगा. फिल्म हाथी मेरे साथी की साइंिनंग अमाउंट से ही राजेश खन्ना ने यह बंगला खरीदा था. जिस वक्त फिल्म रिलीज हुई थी. उस वक्त  काका चेन्नई में थे. काका ने फोन पर अपने साथी अभिनेता रुपेश कुमार से पूछा कि फिल्म कैसी चल रही है. रुपेश ने उन्हें बताया कि काका धमाल हो रहा है. समझ लीजिए ऊपर आका नीचे काका. उस वक्त से इस खुशखबरी के बाद काका ने रुपेश कुमार को कार गिफ्ट कर दी थी.यह बंगला कभी भूत बंगला माना जाता था. इस बंगले के कोई खरीददार नहीं मिल रहे थे. उस वक्त जुबली कुमार राजेंद्र कुमार ने इस घर को खरीदने की हिम्मत जुटायी.डिंपल नाम रखा बंगले का.इस बंगले में रहते हुए ही राजेंद्र जुबली स्टार बनें. लेकिन भूत बंगले की बात उनके जेहन में भी थी. सो, उन्होंने पाली हिल में घर खरीदते ही इसे राजेश को बेंच दिया. राजेश मानते थे कि जिस तरह राजेंद्र को इस बंगले से कामयाबी मिली. उन्हें भी मिलेगी और ऐसा हुआ भी. पहले सुपरस्टार का जन्म हुआ काका के आशीर्वाद थे. अंतिम दिनों में भी आशीर्वाद की छत पर ही आकर काका ने अपने प्रशंसकों का अभिवादन किया था.

20120726

वुमनिया ब्रिगेड











फिल्म कॉकटेल की डायना पेंटी ने दीपिका पादुकोण से अधिक लोकप्रियता हासिल की. फिल्म बर्फी में प्रियंका चोपड़ा के साथ साथ इलेना को भी कहानी में खास जगह मिली है. स्नेहा खानवेलकर का संगीत धूम मचा रहा है तो गीता शिंदे और बेला सेहगल अपनी अलग सोच की फिल्मों के साथ तैयार हैं. विकी डोनर हिट हुई तो शूजीत ने इस सफलता का सेहरा अपनी महिला लेखिका जूही चतुव्रेदी के सिर पर बांधा. फिल्म शांघाई में जितनी सोच दिबाकर की थी. उतनी  ही मेहनत और एंगल कहानी में उर्मि जुवेकर ने भी दिया है. स्पष्ट तौर पर नजर आ रहा है कि बॉलीवुड में अब महिलाओं की एक नयी फौज तैयार हो रही है और यह फौज कुछ लीक से हट कर करने में यकीन कर रही है. सितारों की इस दुनिया में ये महिलाएं अलग तरीके से अपनी पहचान स्थापित कर रही हैं और लोगों द्वारा इनकी सराहना हो रही है. फिर चाहे वह अभिनय के क्षेत्र में हो, संगीत के क्षेत्र में या फिर लेखन या निर्देशन के क्षेत्र में.बॉलीवुड की इस नयी महिला ब्रिगेड पर अनुप्रिया अनंत की रिपोर्ट


अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा अभी भी मानती हैं कि बॉलीवुड इंडस्ट्री पर हमेशा पुरुष वर्ग हावी रहेगा. यह बहुत हद तक सही भी है. चूंकि पिछले कई सालों से इस इंडस्ट्री में जितनी जल्दी पहचान स्थापित करने में पुरुष कामयाब होते हैं. उतनी जल्दी लड़कियां नहीं और अगर लड़कियां पहचान स्थापित कर भी लेती हैं तो उनको लेकर कई तरह की बातें बनाई जाती हैं. ऐसे में कुछेक महिलाएं ही होती हैं जो अपनी पहचान स्थापित कर लेती हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों से यह दौर बदल रहा है. विशेष कर वर्ष 2012 की बात करें तो हर क्षेत्र में महिलाएं एक अलग ही रूप प्रस्तुत कर रही हैं. बिल्कुल आम दिखनेवाली महिला या बिल्कुल अपरिचित महिला अचानक अपने काम से लोकप्रिय हो जा रही हैं. प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पादुकोण की श्रेणी में आकर डायना लोगों को चौंकाती हैं तो संगीत पर पुरुषाधिकार को ठेंगा दिखाती स्नेहा खानवलकर सबको दरकिनार कर आगे बढ़ती हैं. जब बुद्धिजीवी होने की बात आती है तो दिबाकर के साथ साथ उनकी लेखिका उर्मि का भी नाम आता है. यह साफ तौर पर तसवीर खींचती है कि अब बॉलीवुड में नये दौर में अलग तरीके से महिलाएं प्रतिनिधित्व कर रही हैं. ग्लैमर, फिल्मी खानदान न होने के बावजूद वे लगातार अपनी पहचान स्थापित कर रही हैं. ऐसा नहीं है कि महिलाएं पहले से सभी क्षेत्रों में सक्रिय नहीं हैं. लेकिन इस वर्ष अचानक से कई महिलाओं को उनके अनछुए क्रेडिट भी मिल रहे हैं. जिसकी वह हकदार हैं. उन्हें वह सराहना मिल रही है.
स्नेहा खानवलकर : टुंगटुंग दा साउंड करदा
एमटीवी ट्रिफिन पर कुछ दिनों पहले से स्नेहा खानवलकर एक कार्यक्रम आ रहा है. इसमें स्नेहा अपने संगीत के सफर को वाकई सफर में तलाशती हैं और गांव गांव जाकर अलग अलग तरह की चीजों को लेकर संगीत बना रही हैं. नये लोगों को तलाश रही हैं. उनके ट्रिफिन का गीत टुंगटुंग दा साउंड करदा बेहद लोकप्रिय हो रहा है. दरअसल, स्नेहा खुद भी टुंगटुंग सी ही हैं. मतलब वे थोड़ी अनसुलझी सी हैं. जो बिल्कुल समझ से परे हैं. लेकिन उनका संगीत आज पूरे भारत में लोकप्रिय हैं. हाल ही में रिलीज हुई फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर 1- और जल्द ही रिलीज होने जा रही फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर 2 के गीत लगातार लोकप्रिय हो रहे हैं. इस फिल्म के संगीत को खास बनाना का श्रेय उन्हें ही जाता है. भारत में लड़कियां संगीत के क्षेत्र में नहीं आतीं. हिंदी सिनेमा जगत में जद्दनबाई, उषा खन्ना जैसे कुछेक नामों को छोड़ दें तो एक स्थापित म्यूजिक निर्देशक के रूप में स्नेहा ने अपनी पहचान स्थापित कर ली है.प्राय: लोगों का मानना होता है कि लड़कियां इनोवेटिव नहीं होतीं. जबकि स्नेहा ने तो इनोवेशन की सारी सीमाएं ही तोड़ दी है. उन्होंने एक राह चुन ली है. स्नेहा शुरुआती दौर से ही गाने की शौकीन  रहीं. वे कविताएं भी धुन पर याद करती थीं. स्नेहा के चेहरे पर एक अलग तेज हैं. वह ऐसी बेफिक्र और बोल्ड लड़की हैं कि गाने की रिकॉर्डिग के वक्त जरूरत पड़ने पर वे किसी पुरुष से भी भीड़ गयीं. वे लड़की हैं लेकिन फिर भी ऐसे स्थानों पर जाती हैं जहां वह असुरक्षित हैं. लेकिन वे कहती हैं कि उन्हें पता है कि वे परेशानियों को हैंडल कर सकती हैं.स्नेहा का बनाया गीत वुमनिया. वाकई उन पर सबसे सटीक बैठता है. वह वाकई खास वुमनिया हैं बॉलीवुड की आनेवाली पीढ़ी की.
जूही चतुव्रेदी : विकी डोनर की मां
जी हां, यहां जूही चतुव्रेदी को विकी डोनर की मां इसलिए कहना उचित होगा. चूंकि जूही चतुव्रेदी ने  विकी डोनर की फिल्म की कहानी को जन्म दिया है. इस फिल्म से इन्हें इतनी लोकप्रियता मिली है कि शेखर कपूर जैसे निर्देशक ने उन्हें अपने साथ फिल्म लिखने का अवसर दिया है. जूही चतुव्रेदी ने कभी विकी डोनर की कहानी अपने पहले बॉस पीयुष पांडे को दिखाई थी और कहा था कि यह फिल्म नहीं बन सकती यह तो एक विज्ञापन की कहानी है. लेकिन उसी वक्त शूजीत को कुछ ऐसी ही कहानी की जरूरत थी. उस वक्त जूही ने शूजीत से मुलाकात की. और शूजीत को यह नया आइडिया बेहद पसंद आया. फिर दोनों साथ बैठे और लगातार काम किया. इसी क्रम में नयी कहानियां जुड़ती गयीं. और फिर इस कहानी ने फिल्म का रूप लिया. जूही शूजीत की एक और फिल्म जिसमें अमिताभ अभिनय कर रहे हैं. उसे लिखने में व्यस्त हैं. जूही ने फिल्म की दो महिला विकी की दादी और मम्मी को काफी अलग दिखाया है. यह दर्शाता है कि जूही चतुव्रेदी जैसी महिलाएं किरदारों में भी महिलाओं की छवि को बदल रही हैं.
उर्मि जुवेकर : शांघाई का स्तंभ
उर्मि जुवेकर ने दिबाकर बनर्जी के साथ मिल कर शांघाई लिखी है. दिबाकर मानते हैं कि शांघाई उर्मि और उनके दोनों की सोच के सौंजन्य से बनी. उर्मि और दिबाकर ने मिल कर शांघाई के लिए कई ड्राफ्ट लिखे. फिल्म ओये लकी के बाद दिबाकर ने उर्मि से कहा कि वह जी जैसी एक पॉलिटिकल फिल्म बनाना चाहता हैं. उर्मि चाहती थीं कि वह जी की तरह कोई फिल्म लिखे. सो, उन्होंने दिबाकर को कहा. फिर तय हुआ दोनों ने साथ सोचना शुरू किया और मिल कर शांघाई बनी. उर्मि जुवेकर ने इससे पहले ओये लकी लकी ओये, रुल्स और आइएम भी बतौर स्क्रीन राइटर लिख चुकी हैं.
ऐलियाना डिक्रूज : बर्फी -सी मीठी
ऐलियाना डिक्रूज अनुराग बसु की फिल्म बर्फी में प्रियंका चोपड़ा व रणबीर कपूर के साथ नजर आ रही हैं. यह बॉलीवुड में उनकी पारी की शुरुआत है और अभी  फिलवक्त फिल्म के केवल प्रोमो जारी किये गये हैं. लेकिन फिल्म के ट्रेलर में ही ऐलियाना प्रियंका को टक्कर देती नजर आ रही हैं. यह दर्शाता है कि हिंदी फिल्मों में अब धीरे धीरे दो अभिनेत्रियोंवाली फिल्मों में भी कोई नया चेहरा अपने शानदार अभिनय से दर्शकों का ध्यान खींच सकता है. इस फिल्म में प्रियंका से अधिक ऐलियाना को लेकर दर्शकों में रुचि है. ऐलियाना तेलुगु फिल्मों में काम कर चुकी हैं. वे मुंबई से ही हैं. उन्हें तेलुगु फिल्मों में सराहना मिलती रही है. अनुराग खुद मानते हैं कि ऐलियाना काफी मैच्योर अभिनेत्री हैं. वे वर्सेटाइल हैं. हिंदी फिल्मों में उनका भविष्य उज्जवल है.
डायना पेंटी : कॉकटेल की मीरा
डायना पेंटी ने फिल्म कॉकटेल से शुरुआत की है और फिल्म की रिलीज से पहले से ही उन्होंने खासी लोकप्रियता हासिल कर ली थी. फिल्म देखने के बाद दर्शकों को वह भा गयी हैं. वे फिल्म में दीपिका को टक्कर देती नजर आयी हैं. और दर्शकों को उनका सीधा साधा अंदाज बेहद पसंद आया है. हिंदी फिल्मों में अभिनय के लिए उन्हें इस फिल्म के बाद से कई ऑफर मिल रहे हैं. फिल्म कॉकटेल में उन्होंने अपने अभिनय को ही नहीं अपनी डांसिंग स्कील को भी दर्शाया है.
गौरी शिंदे : इंग्लिश विंग्लिश
गौरी शिंदे आर बाल्की की पत् नी है. फिलहाल लोग उन्हें भले ही आर बाल्की की पत् नी के रूप में जानें. लेकिन फिल्म की रिलीज होने की देरी है. वे फिल्म इंग्लिश विंग्लिश से अपने निर्देशन करियर की शुरुआत कर रही हैं. और इसी फिल्म से वे श्रीदेवी की वापसी स्क्रीन पर करवा रही हैं. फिल्म के प्रोमो ने जिस तरह दर्शकों की सराहना बटोरी है और गौरी ने जिस तरह से अलग तरीके से फिल्म का सेंसर सर्टिफिकेट का इस्तेमाल करके बिल्कुल अद्वितीय प्रोमो बनाया है. वह दर्शाता है कि फिल्म कितनी अलग है. और श्रीदेवी की वही ताजगी फिर से स्क्रीन पर नजर आ रही है. यह एक निर्देशिका की अलग सोच को दर्शाती है. निस्संदेह गौरी आनेवाले समय में महत्वपूर्ण महिला निर्देशकों में से एक होंगी जो लीक से हट कर फिल्में बनाती नजर आयेंगी.
बेला सेहगल : शीरी फरहाद की लव गुरु
बेला सेहगल जैसी महिला निर्देशिका जिन्होंने अभिनेत्री के रूप में किसी प्रचलित अभिनेत्री की बजाय किरदार की डिमांड को देखते हुए फराह खान को चुना है. जो कि एक कोरियोग्राफर हैं और निर्देशिका हैं. दो ढलती उम्र के लोगों को लेकर फिल्म की कहानी सोचनेवाली बेला दर्शाती हैं कि वे सोच के विपरीत, ट्रैक के विपरीत काम करनेवालों में से हैं. इसके बावजूद कि आज स्टार का बोल बाला है. वे बिल्कुल विपरीत सोच के साथ रिस्क ले रही हैं. आनेवाले समय में महिला निर्देशकों में अलग तरह की सोच रखनेवालों में वे भी महत्वपूर्ण रूप से शामिल होंगी.
ऋचा-हुमा कुरेशी : वासेपुर की खोज
ऋचा चड्डा ने भले ही फिल्म ओये लकी लकी ओये में अभिनय किया है. लेकिन उन्हें पहचान मिली फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर से. फिल्म में मनोज बाजपेयी की पत् नी का महत्वपूर्ण और सशक्त किरदार निभा कर उन्होंने साबित कर दिया है कि वे फिल्मी खानदान से न होते हुए भी खास पहचान स्थापित कर सकती हैं. अपने अभिनय के दम पर. इसी फिल्म से प्रभावित होकर उन्हें मीरा नायर की फिल्म में भी काम करने का मौका मिल रहा है. फिल्म गैंग्स में ही नयी अदाकारा के रूप में नजर आनेवाली प्यारी सी हुमा कुरेशी भी आनेवाले समय में अभिनेत्रियों को चेहरा बनेंगी. दोनों ही भागों में उनके किरदार से दर्शक प्रभावित नजर आ रहे हैं. हूमा की मासूमियत और खूबसूरती का कॉकटेल उन्हें बॉलीवुड की खास अभिनेत्रियों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देगा.

20120725

बहुत-बहुत शुक्रिया, थैंक यू और मेरा बहुत बहुत सलाम।...

kaka ka unke chahne walon ke liye messege.
source : db and ndtv
http://www.youtube.com/watch?v=t7xwuAVDbH0

 मेरे प्‍यारे दोस्‍तों, भाइयों और बहनों। नोस्‍टैल्जिया में रहने की आदत नहीं है मुझे। हमेशा भविष्‍य के बारे में ही सोचना पड़ता है। जो दिन गुजर गया है, बीत गया है, उसका क्‍या सोचना, लेकिन जब जाने पहचाने चेहरे अनजान से एक महफिल में मिलते हैं तो यादें वापस ताजा हो जाती हैं


मेरा जन्‍म थियेटर से हुआ। मैं आज जो कुछ भी हूं ये स्‍टेज, ये थियेटर की बदौलत हूं। मैं जब फिल्‍मों में आया तो मेरा कोई गॉडफादर नहीं था। कोई रिश्‍तेदार नहीं थे। कोई सिर पर हाथ रखने वाला नहीं था। मैं यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स फिल्‍मफेयर टैलेंट कॉन्‍टेस्‍ट के जरिये आया। हमको टाइम्‍स ऑफ इंडिया में बुलाया गया था। वहां पर बड़े बड़े प्रोड्यूसर्स थे। चाहे वो चोपड़ा साहब थे, बिमल रॉय थे, शक्ति सामंत थे, बहुत सारे थे। उन्‍होंने कहा कि हमने आपको डायलॉग भेजा है, वो याद किया आपने? मैं सामने बैठा था और वो एक बड़ी सी टेबल में लाइन में बैठै थे.मुझे ऐसा लग रहा था कि कोर्ट मार्शल हो रहा है। जैसे ये बंदूक निकालेंगे और मुझे मार देंगे। मैंने कहा कि डायलॉग तो याद है लेकिन ये जो डायलॉग है, ये आपने नहीं बताया कि इसका कैरेक्‍टराइजेशन क्‍या है कि ये हीरो जो है वो अपनी मां को बताता है कि मैं एक नाचनेवाली से शादी करना चाहता हूं और उसको तेरी घर की बहू बनाना चाहता हूं। मैंने कहा, आपने ना कैरेक्‍टर बताया मां का, ना हीरो का कि भई अमीर है, गरीब है, मां गरीब है, मां सख्‍त, कड़क है, नरम है, मिडिल क्‍लास है, आदमी पढ़ा लिखा या अनपढ़ है? तो चोपड़ा साहब ने झट से कहा कि आप थियेटर से हो


हां जी. मैंने कहा, डायलॉग तो आपने भेज दिया किस तरह मां को कन्‍विंस करना है, डायलॉग बोलना है, आपने कैरेक्‍टराइजेशन नहीं बताया। ये तो कोई स्‍टेज का एक्‍टर ही बोल सकता है। तो बोले ठीक है, अच्‍छा है, तुम कोई अपना ही डायलॉग सुनाओ। अब काटो तो खून नहीं, पसीना छूट रहा था। मैंने कहा, क्‍या डायलॉग बोलूं, मेरे सामने बड़े बड़े लोग, इनकी सब पिक्‍चर 10-10 बार देखी है, प्रोड्यूस-डायरेक्‍ट की हुई। जो डायलॉग, जिसकी वजह से मैं फिल्‍मों में आया, मुझे जीपी सिप्‍पी ने चांस दिया 40 साल पहले, 'हां मैं कलाकार हूं, हां मैं कलाकार हूं, क्‍या करोगे मेरी कहानी सुनकर'


दोस्‍तों आपका एक हिस्‍सेदार मैं भी हूं और जैसे मैंने पहले भी कहा कि आप अपना कीमती वक्‍त निकालकर, आपका ये प्‍यार था कि आप मौजूद हुए और इतनी भारी संख्‍या में... मैं यहीं कहूंगा कि बहुत-बहुत शुक्रिया, थैंक यू और मेरा बहुत बहुत सलाम।

20120724


मेरा पहला फिल्मी प्रीमियर: लाइफ इन अ मेट्रो @ पीवीआर जूहू



फिल्मी प्रीमियर की तसवीरें अखबारों व टीवी में देखती सुनती रहती थीं. मन
में कई तरह की जिज्ञासाएं थीं. लेकिन दो दिनों के मुंबई भ्रमण के पहले ही
मौके पर प्रीमियर में जाने का मौका मिल जायेगा. यह सोचा नहीं था. वर्ष
2007 की बात है. मैं और मेरे दोस्त पुणो आये थे. हमारी एक डॉक्यूमेंट्री
फिल्म का चयन एफटीआइआइ प्रभात फिल्मोत्सव में हुआ था.  सो, उसी दौरान
पहली बार दरअसल, महाराष्ट्र में पहला कदम रखा था.5 दिनों का आयोजन था.सो,
हमने फिल्मोत्सव से वक्त निकाल कर मुंबई का कार्यक्रम बनाया. मुंबई में
परिवार के कई सदस्य रहते हैं. सो, हम मिलने मिलाने चले आये. पहले यही
योजना थी कि एक दिन में सबसे मिल कर चले आयेंगे. लेकिन हम भूल गये थे कि
हम आ रहे हैं मुंबई शहर. जहां बनी बनाई योजनाएं भी फेल हो जाती हैं और पल
में क्या बदल जाता है. पता नहीं रहता. सो, हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ.
मुंबई आये. दिन बुधवार था. दादर के बस स्टैंड पर आकर रुकी थी पुणो से
हमारी बस. वहां उतर कर गोरेगांव का रास्ता पूछा. मुङो याद है. टैक्सी वाले
ने उस वक्त 80 रुपये लिये थे. रास्ते में हम दोनों ही उत्सुकता से मुंबई
की सड़कों, वहां के लोगों को, बेस्ट बस को देख रहे थे. लाइफ इन अ मेट्रो
के पोस्टर्स भी नजर आ रहे थे. बहरहाल हम पहुंचे गोरेगांव. हमें दूसरे दिन
पुणो वापसी करनी थी. दिन था गुरुवार. इसी दिन मुंबई में प्राय: फिल्मी
प्रीमियर आयोजित किये जाते थे. हम भी लकी थे. यह सुन कर कि आज रुक जाओ
लाइफ इन मेट्रो रिलीज हो रही है. प्रीमियर देख आओ. यह सुनते ही फिल्मी
लालची मन ने तुरंत मन बदल दिया. एक बार में हां में सिर हिला दिया कि हम
रुकेंगे.रात में 9 बजे का शो था. उस वक्त मुंबई के किसी भी इलाके से मैं
वाकिफ नहीं थी.( सच कहूं तो मुङो आज भी मुंबई के कई इलाकों के रास्ते एक
से लगते हैं. विशेष कर पीवीआर जूहू). पीवीआर जूहू में ही प्रीमियर था
शायद. किसी मल्टीप्लेक्स में भी फिल्म देखने का यह पहला अनुभव था
मेरा.जहां तक मुङो याद है. हम तीन लोग थे. हम ऑटो से उतरे ही थे कि मेरी
नजर इरफान खान पर गयी. वे ब्लैक या स्लेटी कलर के कोट में थे. किसी
फिल्मी हस्ती को इतने नजदीक से देखने का पहला मौका था. हम अंदर गये. वहां
रेड कारपेट का कार्यक्रम चल रहा था और इरफान मीडिया को बाइट दे रहे थे.

मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था कि आज पहली बार फिल्मी सितारों के साथ फिल्म
देखने का मौका मिलेगा. लेकिन अचानक जैसे ही सामने एक्सलेटर की सीढ़ी नजर
आयी. मेरी खुशी में लंबा सा पॉज लग गया. मैं ठहर गयी. मेरे दोस्त और
विपुल मामा दोनों एक्सलेटर से ऊपर जा चुके थे. उन्होंने ध्यान नहीं दिया
था. लेकिन मैं डरपोक नीचे ही रह गयी. कि पीछे से आवाज आयी. चलिए मैडम
चलिए, कोई दिक्कत नहीं है.डरिए मत. नहीं गिरियेगा. पलट कर देखा तो इरफान
खान थे. मैंने कहा नहीं नहीं मैं नहीं जा पाऊंगी. मैं किनारे हो गयी.
इरफान ने दोबारा कहा अरे मैडम डरिए मत. अच्छा ऐसा करिये डर रही हैं तो उस
तरफ सीढ़ी है. वहां से आ जाइए. इधर कैमरों के फ्लैश फ्लैश हो रहे थे
इरफान पर. और वे मुङो निर्देश दे रहे थे. लेकिन मुङो इरफान की उतनी देर
के बरताव से ऐसा लगा कि वाह फिल्मी सितारे तो बहुत कॉपरेटिव होते हैं.
बहरहाल मैं, सीढ़ियों से ऊपर आयी. मेरे साथ आये और दो महारथियों की अब
मेरी याद आ गयी थी.मेरे रोमांच के पल्स जिसने वहां एक्सलेटर के पास पॉज
ले लिया था. वह फिर से प्ले मोड में चले गये. हम थियेटर में पहुंचे. तो
थियेटर के अंदर जाते हुए भी मैं कुछ नया महसूस कर रही थी. तभी बगल से
समीर सोनी, रॉनित रॉय, उनकी पत् नी मानसी जोशी, मीता भट्ट, कल्पना
लाजिमी, सुधीर मिश्र जाते दिखे. जिन्हें हमेशा से टीवी पर देखती रहीं. आज
उन्हें मैं अपने सामने देख रही थी. हमें कोने की तीन सीट मिल गयी. अभी शो
शुरू नहीं हुआ था. सितारों का आना जाना जारी था. मेरी आंखें लगातार सबको
पहचानती जा रही थी. जिनके नाम याद नहीं थे. उनके धारावाहिक के किरदार से
उन्हें याद कर रही थी. लोग आपस में चर्चा कर रहे थे कि कंगना भी आनेवाली
है. उस वक्त कंगना की केवल गैंगस्टर ही रिलीज हुई थी. मुङो उस फिल्म से
प्यारी लगी थी कंगना सो, मैं इंतजार करने लगी थी. सच कहूं तो ईमानदारी
से. उस दिन भले ही आयी थी मैं फिल्म देखने. लेकिन मैं लगातार जो भी
कलाकार आ रहे थे. उन्हें ही देख रही थी. लेकिन थोड़ी ही देर के बाद
लाइट्स ऑफ हुए और फिल्म लाइफ इन अ मेट्रो शुरू हुई. फिल्म शुरू होने से
पहले यकीनन मेरा मन भटक चुका था. कलाकारों को देखने में. लेकिन जैसे जैसे
फिल्म आगे बढ़ती गयी. फिल्म की कहानी ने इस कदर बांधा  और मैं इस कदर
कहानी में रमी कि फिर खोती चलती गयी. लाइफ इन मेट्रो इसलिए मेरी आज भी
पसंदीदा फिल्मों में से एक नहीं है, क्योंकि यह मेरे जीवन का पहला
प्रीमियर शो था. लेकिन इसलिए क्योंकि अनुराग बसु ने न सिर्फ कहानी के
आधार पर, बल्कि संगीत से भी मुंबई की जिंदगियों की जो सैर करायी थी. वह
खासियत थी इस फिल्म की. 


मेरा दूसरा दिन मुंबई में और एक ऐसी फिल्म देख
रही थी जो मुंबई की कहानी बयां कर रही थी. सो, मैं फिल्म से काफी कनेक्ट
कर पा रही थी. दो दिनों में ही मुंबई मुङो अपना सा लगने था. न जाने
क्यों. लेकिन फिल्म की कहानियां, उसके किरदार, लोकल ट्रेन सारी चीजें ऐसा
लग रहा था जैसे दो दिनों में ही मैंने  इन सभी चीजों को आस पास महसूस
किया है. विशेष कर फिल्म में धर्मेद्र और नफीशा अली के बीच का प्रेम
प्रसंग इस हिस्से ने मुङो बेहद प्रभावित किया था.बहरहाल, मेरा पहला
प्रीमियर रोमांच इंटरमिशन पर आ पहुंचा था. इंटरमिशन पर भी बेहद रोमांटक
बातें हुईं मेरे साथ. मुङो पॉपकॉर्न और कोल्ड ड्रिंक्स खाने की इच्छा थी.
लेकिन मैंने जब बाहर प्राइस लिस्ट पर नजर दौड़ाई तो मेरी हिम्मत नहीं
हुई. आकर फिर से अपनी सीट पर बैठ गयी.जबकि हमारी सीट पर आकर मुङो थियेटर
ब्वॉय ने पॉपकॉर्न ऑफर किया था. मेरे पास पैसे तो थे नहीं. विपुल मामा और
मेरे दोस्त भी बाहर गये थे.सो, मैंने मना कर दिया. दोनों आये तो दोनों से
बताया तो विपुल मामा ने बताया कि पैसे देकर नहीं खरीदने थे. प्रीमियर में
गेस्ट्स के लिए रिफ्रेशमेंट रहता है. अब फिल्म शुरू हो चुकी थी. फिल्म की
शुरुआत से ही इरफान खान के किरदार से मुङो प्यार हो गया था. एक तो फिल्म
में उनका किरदार था भी बहुत मजेदार. और बाहर जो उनसे रूबरू होकर आयी थी
जो वह भी जादू था. सो, फिल्म के इरफान वाले हिस्से को मैंने सबसे ज्यादा
एंजॉय किया. इरफान की ईमानदारी मुङो बेहद प्यारी लगी. वह जो सोचते थे वह
भी बोल जाते थे.फिल्म में शिल्पा की बेबसी, और धर्मेद्र -नफीशा के प्यार
के पूरे न हो पाने का भी अफसोस था. लेकिन लाइफ इन मेट्रो की सबसे खास बात
यह थी कि फिल्म में कई कहानियां थीं. लेकिन जिस तरह दादर सेंट्रल और
वेस्टर्न लोकल को जोड़ती है. फिल्म की सारी कहानियां. सारे किरदार उलझते,
सुलझते, एक दूसरे से जुड़े थे. अनुराग बसु की अब तक की सबसे बेस्ट फिल्म
है ये मेरी नजर में. फिल्म खत्म होने पर वापसी के दौरान शिल्पा का शाईनी
के पास वापस न जाना बार बार अखड़ रहा था मुङो. गाइड की रोजी याद आ रही
थीं. 
अनुराग बसु को उस दिन भी मैंने नहीं देखा था. लेकिन उनकी कहानी कहने का तरीका बेहद भा गया था. a. लेकिन उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलने का मौका हाल में मिला.मेरे मन में यह सवाल था कि मैं उनसे
पूछूं कि शिल्पा शाईनी के पास वापस क्यों नहीं जाती. लेकिन पूछ नहीं
पायी. अनुराग को मैं लाइफ इन मेट्रो वाले अनुराग से ही जानने लगी थी.
उम्मीदन जल्द ही वह बर्फीवाले अनुराग बसु बन जायेंगे. क्योंकि इन फिल्मों
में दरअसल, निर्देशक की अपनी छवि, उनकी वास्तविक सोच की झलक है. 2007 में
पीवीआर जूहू के अपने पहले फिल्मी प्रीमियर के अनुभव हमेशा जेहन में जिंदा
रहेंगे. मैंने वापस जाकर अपने हॉस्टल में सभी को पूरी बात बताई थी. आज भी
इरफान सामने आते हैं तो एकबारगी पीवीआर के फ्लैशबैक में चली जाती हूं.
वर्तमान में प्राय: पीवीआर जूहू में ही फिल्मों की प्रेस स्क्रीनिंग होती
है और वहां अक्सर आना जाना होता है. आज भी एक्सलेटर की सीढ़ियां वही हैं.
वे बार बार एक तरफ से चढ़ कर दूसरी तरफ उतर जा रही हैं. इन पांच सालों
में कुछ खास नहीं बदला. लेकिन फर्क बस यही आया है कि   अब मैं एक्सलेटर
पर चढ़ने से नहीं डरती और पीछे से एक्सलेटर पर चढ़ने के लिए मेरा हौसला
बढ़ानेवाले इरफान से अब पीछे से नहीं आमने सामने बातें होती हैं

अरविंद स्वामी का पोस्टर चाहिए ?? -गिफ्ट मांग रही हो कि टास्क दे रही हो



शुक्रिया ड्रीम बॉय मेरे सपने से हकीकत में मुझसे रूबरू होने के लिए :)






मेरे पहले ड्रीम हीरो
मेरा पहला फिल्मी ड्रीम
हाँ हाँ वही ...वहीं रोजा वाले अरविंद स्वामी


मुंबई में मैं ढाई साल पुरानी हो चुकी हूं और फिल्मी दुनिया के
इर्द-गिर्द घूमते हुए भी.लेकिन फिल्मों का चस्का लगे न जाने कितने बरस
बीत गये. मम्मी पापा के फिल्मी शौक ने हम तीन बहनों पर भी ऐसा प्रभाव
डाला कि हम तीनों भी यूं फिल्मों से प्रेम कर बैठे कि तीनों के सपनों में
आये दिन फिल्मी हस्तियां आने लगें. नेहा दीदी के सपनों में आमिर, खुशबू
दीदी के सपनों पर सलमान खान और मेरे सपनों पर अरविंद स्वामी का राज चलता
था उन दिनों. जी हां, मेरे फेवरिट हीरो के बारे में सुनकर इस वक्त जिस
तरह आपके चेहरे के भाव बदल रहे हैं. मेरे दोस्तों के चेहरे के भाव भी यूं
ही बदल जाया करते थे. मेरी दोस्तों और मेरी बहनों को विश्वास नहीं होता
था कि मैं शाहरुख, सलमान. आमिर की नहीं. अरविंद स्वामी की फैन हूं.लेकिन
जो सच है वह सच है. उस वक्त अरविंद स्वामी की सिर्फ रोजा देखी थी मैंने
और उस वक्त से वह मेरे सपनों में आने लगे थे. मैं उन्हें इस कदर पसंद
करने लगी थी कि दुकानों पर उस वक्त फिल्मों के छोटे छोटे कैलेंडर मिला
करते थे. उनमें मैंने छांट कर अरविंद स्वामी की सारी तसवीरें एकत्रित की
थी. और एक डायरी भी बनाई थी. मेरे एक दोस्त जिसने  मुझे   मेरे बर्थ डे का
तोहफा मांगने को कहा तो मैंने उनसे अरविंद स्वामी की पोस्टर ढूंढ कर लाने
को कह दिया. उनके चेहरे पर ढेर सारे क्योशन मार्क्‍स थे. उन्होंने मुझसे
कहा कि भई, तोहफा मांग रही हो या टास्क दे रही है. अब ये अरविंद स्वामी
है कौन पहले तो ये बताओ. और इन्हें क्यों पसंद करती हो. उस वक्त मैं
फिल्मों के बारे में या इसके ग्रामर कोई जानकारी नहीं रखती थी. सो, मुङो
इसका जवाब किसी फिल्मी विश्लेषण के आधार पर  नहीं पता था. (शायद वर्तमान दौर
में उनकी फिल्में रिलीज होतीं और वे अब के हीरो होते तो मैं उनमें काबिल
फिल्मी पत्रकार बन कर उनमें कई मीन मेख  निकालती, अच्छा हुआ वे आज के दौर
के अभिनेता नहीं थे)   मैंने उन्हें बस यही जवाब दिया था कि रोजा फिल्म
देखो, कितने प्यारे से दिखते हैं वह. 
गलती मेरे दोस्त की भी नहीं थी कि वह अरविंद स्वामी को नहीं पहचानते थे. चूंकि अरविंद स्वामी कभी बेहद
लोकप्रिय सितारा या सुपरसितारा नहीं रहे. उन्होंने हिंदी में चुनिंदा
फिल्में ही की. लेकिन उनकी उस चुनिंदा अंदाज, मासूम से चेहरे, फिल्म रोजा
में उनकी शरारत भरी अदा, बांबे में उनकी स्माइल और फिर दर्द को उन्होंने
जिस तरह परदे पर उतारा था. उनके चुलबुले अंदाज ने विशेष कर मुझे   उनका
कायल बना दिया था. रोजा देखने के बाद से ही न जाने क्यों हर दिन मेरी
सपने में उनसे मुलाकात होती थी. सपना लेकिन फिल्मी अंदाज में नहीं हुआ
करता था. अरविंद सपने में मेरे परिवार के किसी सदस्य के रूप में नजर आते
थे.जिनका मैं बहुत ख्याल रखती थी. 
बहरहाल मेरे दोस्त ने दोस्ती नभायी. और पोस्टर न जाने कहां से मगर ढूंढ कर लाकर दी. मुङो याद है. एक दिन मैं अरविंद की सारी तसवीरें और पोस्टर्स सजा रही थी अपनी डायरी में.

एक दिन पढाई के दौरान मेरे अरविन्द प्रेम ने छोटे पापा से  डांट  खिला दी थी  
पढ़ाई का वक्त था वह. मेरे छोटे पापा ने आकर पीछे से कान पकड़ कर बोला कि
हेमा मालिनी के नानी के नाम याद रही. बाकी अभी गणित के कौनो इक्वेशन पूछब
त नइखे पता होई.. याद है. मैंने उन्हें क्या जवाब दिया था. कि छोटे
पापा, हेमा मालिनी की नानी का भी नाम याद नहीं हैं. हां, अरविंद स्वामी
के बारे में पूछेंगे तो पूरा डिटेल दे दूंगी. उस दिन वे भी हैरत में पड़
गये थे. इ के ह हो..अरविंद स्वामी . तो मैंने उन्हें भी बताया. पापा रोजा
वाला हीरो..वे भी हंसते हुए बाहर चले गये. पापा से जाकर कहा सुन ह भईया
नीशू के कौनो साउथ इंडियन हीरो पसंद बा. एकर बिहाह में अइसने लड़का
ढ़ूंढे के पड़ी. .यकीन मानिए, जब भी मैं अरविंद स्वामी का जिक्र करती.
मुङो पीएसपीओ पंखे के विज्ञापन याद आ जाता. कि अरे यह अरविंद स्वामी को
नहीं जानते. लेकिन मुझे खुशी होती कि अच्छा है मेरी पसंद औरों की नहीं
तो. अरविंद बिल्कुल सेफ हैं मेरे ड्रीम ब्वॉय के रूप में. मैंने हिंदी
में उनकी सारी फिल्में देखी हैं. और सिर्फ अरविंद स्वामी के  लिए ही देखी
है. रोजा, सपने,बांबे, सात रंग के सपने सभी.सपने का गीत आवारा भंवरे..जो
हौले हौले गाये..आज भी अरविंद और काजोल की वजह से मेरा पसंदीदा गीत है.
सपने फिल्म इसलिए भी पसंद है. क्योंकि इसमें मेरे दोनों पसंदीदा कलाकार
थे. उन दिनों इंटरनेट उतना विकसित नहीं था. और अखबारों में भी उस वक्त भी
सुपरसितारा कलाकारों को ही आज की तरह जगह मिलती थी. लेकिन फिर भी अरविंद
की एक छोटी सी तसवीर भी दिखती. तो उसे मैं सहेज कर रखती. 

कुछ दिनों बाद सुना कि अरविंद स्वामी ने फिल्में छोड़ कर अपना बिजनेस शुरू कर दिया है.
वे फिल्मों से तो गये. लेकिन मेरे सपनों से नहीं. बोकारो से रांची प्रवास
के कई सालों के बाद भी वे  मेरे सपनों में आते रहे.फिर न जाने क्या हुआ
अचानक उन्होंने फिल्मों की तरह मेरे सपनों में भी आना बंद कर दिया. रांची
जाने के कुछ सालों बाद ही मेरे सपनों पर हिंदी फिल्मों के निर्देशकों का
राज हो गया. आशुतोष ग्वारिकर, इम्तियाज अली, संजय लीला भंसाली, अनुराग
बसु, अनुराग कश्यप से मैं आज भी सपनों में मिलती रहती हूं.( शायद रांची
में मास कम्यूनिकेशन व फिल्म मेकिंग के कोर्स व  फिल्मी पत्रकारिता का
असर है ये).अरविंद ने मेरे सपनों में आना भले ही बंद कर दिया. लेकिन आज
भी अगर मुझसे कोई पूछता है कि मेरे पसंदीदा हीरो कौन हैं मैं उन्हें
अरविंद का नाम ही बताती हूं.  


हाल ही में जब बोकारो घर पर गयी थी. पापा
ने कहा कि पुराने बक्से में जो भी फेंखना है. उसे हटाओ. बेकार की कई
चीजें होंगी. मैंने जब वह बक्सा खोला तो अचानक अरविंद स्वामी के फ्लैशबैक
में चली गयी. उनकी तसवीरें. पोस्टर्स और उनकी फिल्मों के कैसेट के कवर आज
भी मेरे पास सुरक्षित हैं. कुछ दिनों पहले ही खबर पढ़ी कि वे फिल्मों में
वापसी कर सकते हैं और वे अपने मेकओवर के साथ आ रहे हैं. तो फिर से मेरे
दिल का वही फैन जाग उठा. जब मैं मिुंबई आ रही थी तो मेरी बचपन की व सबसे
करीबी दोस्त सिम्मी ने मुझसे यही सवाल किया था कि नीशू अब तो तू पक्का
अपने ड्रीम ब्वॉय अरविंद से मिल ही लेगी. इन ढाई सालों में तो अब तक उनसे
मिलने का संयोग नहीं बना. लेकिन यह खबर पढ़ कर कि वे हिंदी फिल्मों में
वापसी कर सकते हैं. अरविंद स्वामी क े लिए बचपन का वही प्यार जाग उठता
है. उम्मीदन अपने ड्रीम हीरो से मिलने का ड्रीम कभी तो पूरा होगा.
बेसब्री से आपकी वापसी का इंतजार है अरविंद

जीत कर भी हारीं,हार कर भी जीतीं

सुपरस्टार राजेश खन्ना की मृत्यु के तीसरे दिन ही उनके साथ लीव इन
रिलेशनशीप में रहनेवाली अनिता आडवाणी ने राजेश के परिवार को नोटिस भेज
दिया है कि करोड़ों की संपत्ति में उन्हें भी हिस्सा मिलना चाहिए. अनिता
राजेश के संपर्क में उनके तन्हाई के दिनों में आयी. लेकिन उन्होंने राजेश
से कभी प्यार नहीं किया. चूंकि अगर यह प्यार होता तो प्रेमी की मृत्यु के
तीसरे दिन आप संपत्ति का लोभ नहीं दर्शातीं. हाल ही में आमिर खान के शो
सत्यमेव जयते में एक ऐसे बुजुर्ग दंपत्ति की कहानी दिखाई गयी थी.
जिन्होंने अपने पति व पत् नी के गुजर जाने के बाद दोबारा शादी की. 79 की
उम्र में आकर. चूंकि उनके लिए प्यार का मतलब लोभ या जिस्मानी आकर्षण
मात्र नहीं. बल्कि एक दूसरे की तन्हाई में एक दूसरे का सहारा बनना है. यह
भी प्यार का ही रूप है न. ठीक उसी तरह डिंपल कपाड़िया ने भले ही राजेश
खन्ना का साथ रह कर नहीं दिया. लेकिन उन्होंने कभी उनका साथ छोड़ा भी
नहीं. उन्होंने दूसरी शादी नहीं की. डिंपल के पिता राजेश के फैन थे.सो,
जब डिंपल से शादी का प्रस्ताव उनके पास आया तो वह फूले नहीं समाये. उस
दौर में डिंपल ने भले ही आकर्षण के कारण सुपरस्टार राजेश से शादी कर ली
हो. लेकिन बाद के वर्षो में उन्होंने प्यार निभाया. भले ही अलग रह कर.
डिंपल चाहतीं तो वह भी दूसरी शादी कर सकती थीं, लेकिन उन्होंने नहीं
किया. शायद डिंपल को उन तमाम लड़कियों की बदुआ लगी, जो राजेश पर जान
छिड़कती थी. लेकिन अंतिम समय में राजेश की आखिरी सांस डिंपल के हाथों में
निकली. डिंपल ने अपना वचन निभाया है. कि वे अंतिम सांस तक राजेश के साथ
रही.एक संगिनी की तरह ही. जो डिंपल ने किया वह कभी राजेश की फैन नहीं कर
सकती थीं. डिंपल जीत कर भी हारीं. लेकिन एक पत् नी के रूप में असफल होकर
भी वह सफल रहीं

अभिनेत्रियों के लिए हैप्पी पिक्चर्स

लीजेंडरी वहीदा रहमान ने हाल ही में एक अखबार और टीवी को दिये एक
इंटरव्यू में कहा है कि यह अभिनेत्रियों के लिए सबसे बहेतरीन दौर है.आज
विद्या बालन जैसी अभिनेत्रियों को ध्यान में रख कर डर्टी पिर बनाई जाती
है. लेकिन जिस दौर में वे काम किया करती थीं. उस दौर में अभिनेत्रियों के
पास ऐसे किरदार नहीं आते थे. जिस दौर में उन्होंने गाइड फिल्म में काम
करने की ठानी थी.कई लोगों ने उन्हें मना किया था. चूंकि समाज उस दौर में
यह नहीं स्वीकार पाता कि कोई लड़की शादी के बाद भी किसी दूसरे पुरुष के
साथ प्यार कर रही हो. उस दौर में वहीदा के लिए यह चैलेंजिंग किरदार था.
हाल ही में एक और इंटरव्यू में अभिनेत्री माधुरी दीक्षित ने कहा है कि
वर्तमान में अभिनेत्रियों के लिए काम करने के अवसर बढ़ गये हैं. अब महिला
प्रधान फिल्में बनने लगी हैं. सिर्फ मेकअप और खेत में गाने से आगे बढ़
गयी हैं फिल्मों में अभिनेत्रियों की उपस्थिति. वहीदा और माधुरी की बातों
से साफ जाहिर होता है कि हर कलाकार भले ही कितना भी ग्लैमर की चाशनी में
डूबा रहे. उसे असली स्वाद अभिनय से ही मिलता है. निश्चित तौर पर माधुरी व
वहीदा की तरह उस दौर की अभिनेत्रियों को इस बात का अफसोस रहेगा कि
उन्होंने अपनी फिल्मों में उपस्थिति मात्र दर्ज की. माधुरी की मुस्कान के
लोग कायल थे और आज भी हैं. वहीदा, बैजयंतीमाला की खूबसूरती पर लोग जान
छिड़कते हैं. लेकिन अभिनय की बात आती है तो हमेशा ही स्मिता पाटिल, शबाना
आजिमी जैसी अभिनेत्रियों का नाम सामने आता है. स्पष्ट है कि एक कलाकार को
अभिनय की हमेशा भूख होती है. विद्या बालन और नये जमाने में जिस तरह से
दौर बदल रहा है.एक फिल्मों में दो अभिनेत्रियों को लेकर फिल्में बनाई जा
रही हैं. स्पष्ट है कि अभिनेत्री किरदार का वक्त लौट रहा है.

20120721

मेरे फैन्स मुझसे कोई नहीं छीन सकता

orginally publishd in prabhat khabar
राजेश खन्ना ने कुछ दिनों पहले ही एक पंखे की कंपनी के विज्ञापन में कहा
था कि मेरे फैन्स मुझसे कोई नहीं छीन सकता. कॉरपोरेट जगत में इस विज्ञापन
की बहुत खिल्ली उड़ाई गयी थी. विशेषज्ञों का मानना था कि अब राजेश खन्ना
में वह बात नहीं रही और उन्हें किसी प्रोडक्ट का ब्रांड अंबैस्डर बनाना
सही नहीं. लेकिन यह आर बाल्की की सोच का ही नतीजा था और उनके विश्वास का
कि उन्होंने किसी की बात नहीं मानी और राजेश खन्ना को श्रद्धाजंलि के रूप
में ही यह विज्ञापन दे दिया. यह सच है कि ग्लैमर की दुनिया में कुछ दिन
की जिंदगी का सफर तो सुहाना होता है. लेकिन यहां कल क्या हो, किसी ने
नहीं जाना है . राजेश खन्ना ने भी कभी नहीं सोचा था कि किसी दौर में उनकी
एक मुस्कान व झलक पाने के लिए बेकरार रहनेवाले फैन किसी दौर में उनका साथ
छोड़ देंगे. इसके बावजूद राजेश खन्ना को अपने फैन पर भरोसा था और उनका यह
भरोसा भले ही उनकी जिंदगी से कुछ सालों बाद विलुप्त हो गयी. लेकिन जिंदगी
से जाने के बाद उन्हें उनके वे फैन वापस मिल गये. मुंबई में मैंने अपने 3
साल के समय में पहली बार किसी सिने जगत की हस्ती के अंतिम दर्शन के लिए
ऐसी भीड़ देखी. कार्टर रोड से लेकर विले पार्ले तक मुंबईवासी उनके दर्शन
के लिए उमड़ पड़े थे. विशेष कर बुजुर्गो की संख्या सबसे अधिक थी. महिलाएं
भी बड़ी तादाद में थी और सभी की आंखें नम थी. राजेश खन्ना ने अंतिम शब्द
कहे टाइम हो गया है. पैक अप. और उन्होंने अंतिम सांसें डिंपल कपाड़िया के
हाथों में ली. अक्षय कुमार ने इसी वर्ष धूमधाम से ससुर के लिए दावत का
आयोजन किया था. अपनी जिंदगी में तो नहीं, लेकिन अपनी अंतिम विदाई में
उन्हें अपनों का साथ मिल गया. एक सुपरस्टार के लिए उनके फैन भी तो अपने
परिवार का ही हिस्सा होते हैं. सो, काका को निश्चितरूप से संतुष्टि मिली

20120719

सुपरस्टार के फिल्मकार बेटे



आमिर खान के बेटे जुनैद राजकुमार हिरानी के साथ उनकी फिल्म पीके में निर्देशन में अस्टिट करने जा रहे हैं. आमिर खान के बेटे बतौर अभिनेता नहीं, बल्कि निर्देशक के रूप में फिल्मों में अपनी पारी की शुरुआत करने जा रहे हैं.जुनैद फिलवक्त 17 साल के हैं. आमिर नहीं चाहते थे कि जुनैद अभी से फिल्मों में ध्यान दें. वे चाहते थे कि वे पहले अपनी पढ़ाई पूरी कर लें. लेकिन जुनैद ने पिता आमिर को मना लिया है. विधु विनोद चोपड़ा का मानना है कि जुनैद डिटेलिंग करने में उस्ताद हैं और हर दृश्य को देखने का जुनैद के पास अपना नजरिया है.  प्राय: सुपरस्टार के बेटे निर्देशन की बजाय अभिनय का क्षेत्र चुनते हैं. लेकिन अभिनय क्षेत्र के चयन से सुपरस्टार के अभिनेता बेटे को ताउम्र अपने पिता से की जानेवाली तूलना से गुजरना होगा. अभिषेक बच्चन, ऋषि कपूर वैसे ही बेटों में से एक हैं. ऐसे में जुनैद ने निर्देशन का क्षेत्र चुन कर अपनी कल्पनाशीलता का परिचय दिया है.चूंकि जुनैद जानते हैं कि वे आमिर की तरह अभिनय में परफेक्टनिस्ट बनने में पूरी जिंदगी निकल जायेगी.कुछ इसी तरह किसी दौर में मशहूर फिल्मकार व निर्देशक राज कपूर ने भी बेहद छोटी उम्र से ही अस्टिेंट के रूप में काम करना शुरू कर दिया था. उन्होंने अपने पिता पृथ्वीराज से कहा कि कोई डॉक्टर बनना चाहता है तो वह मेडिकल कॉलेज जाता है. मैं फिल्मकार बनना चाहता हूं. तो मैं पढ़ाई में क्यों अपना वक्त बर्बाद करूं. उस वक्त पृथ्वीराज ने उन्हें अपने दोस्त केदार शर्मा के पास भेज दिया.राज कपूर ने केदार के तीसरे अस्टिेंट यानी क्लैपर ब्वॉय के रूप में काम की शुरुआत की थी. बाद में यही क्लैपर ब्वॉय शोमैन बनें और उनके बेटे कलाकार बने. जिस दौर में राज कपूर ने निर्देशन शुरू किया था. उस दौर में पृथ्वीराज कपूर भी सुपरसितारा थे. संभव हो कि जुनैद भी राजकपूर की तरह एक मिसाल साबित हों

परदे के उठते ही परदे के गिरते ही



किसी भी कलाकार की जिंदगी कैमरे के ऑन होते ही बदल जाती है. परदे के उठते ही एक कलाकार किरदार बन जाता है. और वह अपनी वास्तविक जिंदगी से परे बिल्कुल अलग दुनिया की जिंदगी जीने लगता है. तो जरा सोचिए, किसी भी कलाकार के लिए कितना कठिन होता होगा. पूरी जिंदगी दो जिंदगी जीना. यही वजह है कि हिंदी सिने जगत में कलाकारों के अभिनय करने का अंदाज हमेशा अलग अलग रहा है. कुछ कलाकार कई बार रिहर्सल करते हैं तो कुछ बिल्कुल स्पोनटेनियस होते हैं. लंबे अनुभव के बावजूद आज भी कई कलाकार शॉट देने से पहले नर्वस हो जाते हैं. दरअसल, सेट पर आने के बाद कलाकारों को अपने किरदारों के मुताबिक पूरा माहौल तैयार करना ही पड़ता है. सदी के महानायक अमिताभ बच्चन आज भी लगभग 7-8 कुर्सियां लगा कर सेट पर किसी कोने में बैठ कर रिहर्सल करते रहते हैं. उस दौरान वे बेहद गंभीर होते हैं. तो वही श्रीदेवी हमेशा से स्पानटेनियस रही हैं. निजी जिंदगी में उन्हें कितने भी गम हों. वे सेट पर आने के साथ वाकई बिजली बन जाती है. राजू बताते हैं कि संजय दत्त सिर्फ 2 घंटों में स्क्रिप्ट के कई पन्ने याद कर जाते हैं. फिल्म पिंजर के दौरान मनोज बाजपेयी सेट पर लोगों से कम बात करते थे. लोगों को लगता था वह खड़ूस हैं. लेकिन उन्होंने बाद में बताया कि वे किरदार में ढलने के लिए ऐसा माहौल तैयार करते हैं. राज कपूर की आदत थी कि वे सेट पर एक्टिंग करते वक्त और निर्देशन दोनों वक्त हंसी मजाक का माहौल बनाये रखते थे. जबकि बलराज साहनी अपने हर टेक पर एक सिगरेट पिया करते थे.जबकि ऋषि कपूर, शशि कपूर स्पॉनटेनियस एक्टर रहे. प्राण साहब हमेशा पूरे मेकअप के साथ रिहर्सल किया करते थे. मीना कुमारी भी मेकअप करवाते हुए रिहर्सल करती रहती थीं.

शिक्षित भी कराते हैं भ्रूण हत्या : नील





फिल्म आइएम कलाम से सराहना बटोर चुके नील माधव पांडा इस बार फिल्म जलपरी लेकर आये हैं. इस फिल्म में भी मुख्य भूमिका में बच्चे हैं. लेकिन मुद्दा चुना गया है कन्या भ्रूण हत्या पर.
फिल्म व इस फिल्म के विषय पर निर्देशक नील ने विशेष बातचीत की.

नील माधव पांडा हमेशा लीक से हटकर विषय सोचने व उन्हें बिना किसी बड़े स्टारकास्ट के फिल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं. क्यों अहम है कन्या भ्रूण हत्या जैसे विषयों पर पूरी की पूरी फिल्म बनाना. बता रहे हैं नील

जलपरी का ख्याल
जलपरी एक युवा लड़की की कहानी है. एक लड़की की काल्पनिक जिंदगी है. उस जिंदगी में पानी है.तालाब है, नदियां  हैं. पहाड़ हैं. जैसा कहानियों में होता है. लेकिन वास्तविक रूप से उसने कभी वह दुनिया देखी है. वह कभी गांव नहीं गयी. उसे पहली बार गांव जाने का मौका मिलता है. दिल्ली के पास है वह गांव. वह वहां पहुंचती है और उसके सामने एकएक करके सारे हकीकत सामने दिखते हैं. उसे दिखता है कि किसी गांव में कितनी परेशानी होती है. किस तरह से गांव के लोग इसका सामना करते हैं. वहीं उसे कन्या भ्रूण हत्या के बारे में पता चलता है. वह तय करती है कि वह इसके प्रति आवाज उठायेगी. जलपरी बनाने का ख्याल मेरे मन में उस वक्त आया था. जब मैंने लगातार कई अखबारों में इसके बारे में पढ़ा. लोगों से सुना. मुङो इस मुद्दे ने पूरी तरह झकझोर दिया था. मेरा मानना है कि बतौर निर्देशक यह जिम्मेदारी है मेरी कि मैं इस विषय पर बात करूं तो मैंने इस पर काम शुरू किया.
शूटिंग
इस फिल्म की पूरी शूटिंग हरियाणा के छोटे से गांव में हुई है. और मैंने इस जगह का चुनाव इसलिए किया क्योंकि दुर्भाग्यवश यहां का लिंग अनुपात बेहद असंतुलित है. यहां लगभग हर घर में लोग बोलते थे कि बेटी नहीं बेटा चाहिए. तो मैंने तय किया कि मैं यही शूट करूंगा और यहां के लोगों को समझाने की भी कोशिश करूंगा.
चूंकि फिल्म महिला पर आधारित है. मैंने अपनी फिल्म के क्रू में भी अधिकतर महिलाओं को रखा . ताकि वे वहां के लोगों की संवेदनाओं को समझ सकें.
रिसर्च
इस फिल्म के लिए मैंने लगभग 9 सालों तक रिसर्च किया है. मैं उत्तर भारत के कई जिलों में गया. गांव में गया. वहां रहा. वहां की जिंदगी को समझने की कोशिश की. इसके अलावा महाराष्ट्र, गुजरात, ओड़िशा में रहा. कई लोग मानते हैं कि कन्या भ्रूण हत्या का मुख्य कारण असाक्षरता है. लेकिन मेरे रिसर्च से पता चला कि एजुकेटेड लोग भी कराते हैं हत्या. मेरा मानना है कि लोगों को सिर्फ किसी टॉक शो में एक हफ्ते इस पर बात करके इस मुद्दे को बंद नहीं कर देना चाहिए. इस पर फिल्में बननी चाहिए.इस हत्या को रोकने की कोशिश करनी ही होगी और वह हम ही कर सकते हैं. ऐसी फिल्में बना कर मैं जिम्मेदारी निभा रहा हूं. यह मानता हूं मैं.

हर गली- मोहल्ले में हैं गट्टू



फिल्म  गट्टू   को अंतरराष्ट्रीय स्तर के कई महोत्सवों में खास पहचान मिल चुकी है. सपने संजोनेवाले गली मोहल्ले के एक लड़के की कहानी पर आधारित है गट्ट. निर्देशक राजन खोसा इसे अपनी जिंदगी की सबसे अहम फिल्म मानते हैं.  गट्टू   की परिकल्पना व इसके निर्माण के रोमांचक सफर के बारे में उन्होंने अनुप्रिया अनंत से बातचीत की.20 जुलाई को  गट्टू  पूरे भारत में रिलीज हो रही है.

राजन खोसा को शॉट फिल्म विशडम के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. राजन खोसा ने बतौर लेखक, निर्देशक, निर्माता यूके, यूरोप के लिए काम किया है. डांस ऑफ द विंड उनकी सबसे चर्चित फिल्म रही है. राजन ने मुंबई में स्लम के बच्चों को देख कर  गट्टू   की परिकल्पना की थी.

गट्टू  की परिकल्पना
मैं मुंबई में कई वर्षो से रहा हूं और मैं यहां के बच्चों को देखता रहता था. स्लम के बच्चों को. एक दिन ऑटो रिक् शा में मैं कहीं जा रहा था. तो इन्हीं बच्चों के बारे में सोच रहा था कि ये बच्चे स्लम में रहते हुए भी कितने स्मार्ट होते हैं. उनके पास कई चीजें करनी की सोच होती है. या यूं कहें तरकीब होती है. तो मुङो लगा कि ऐसे बच्चों पर फिल्म बनानी चाहिए. फिर मैंने इस पर काम करना शुरू किया. इसी क्रम में पता चला कि नंदिता दास भी सीएफएसआइ यानी चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी ऑफ इंडिया के तहत कुछ ऐसी ही फिल्मों पर काम करना चाहती हैं तो मैंने उनसे इस बारे में चर्चा की. वे तैयार हो गयीं और हमने काम शुरू किया.
गट्टू  की खोज
मैं अपनी फिल्म में एक ऐसे बच्चे की तलाश कर रहा था जो बिल्कुल स्लम का नजर आये लेकिन हो स्मार्ट अपनी सोच से. और इस तरह शुरू हुई गट्ट की खोज़. हमने शुरुआत मुंबई के स्लम से की. लेकिन अफसोस हुआ यह देख कर कि वहां के बच्चे यह सोच रहे थे कि फिल्म में हीरो की तरह काम करना है तो सभी सलमान और शाहरुख की नकल उतार रहे हैं और उनके पेरेंट्स कतार में खड़े रह कर यह सब देखते थे. उन्हें लगता था कि उनके बच्चों को काम मिल जायेगा तो उनका भी भला हो जायेगा. बुरा लगा था यह सब देख कर लेकिन मेरी खोज वहां पूरी हो ही नहीं पायी.
रुड़की आ पहुंचे
 फिर फिल्म के लेखक अंकुर तिवारी जो रुड़की में रह चुके हैं. उन्होंने आइडिया दिया कि हमें रुड़की में जाकर ऑडिशन करना चाहिए.चूंकि वे रुड़की में रहे हैं तो उन्हें वहां की पूरी जानकारी थी. दूसरी बात यह थी कि रुड़की छोटी जगह है तो वहां बनावटीपन बिल्कुल नहीं है. चूंकि मैं खुद दिल्ली में रहा हूं और हिमाचल घर है मेरा. तो मैं जानता हूं कि छोटे जगह के लोग कैसे होते हैं. सो, हमारी टीम पहुंची वहां. हमने वहां के बेहद छोटे से स्कूलों को चुना.वहां हमने 12 स्कूलों से फिल्म के लिए चार मुख्य कलाकारों का चयन किया. मोहम्मद समद भी उनमें से एक है. हमने फिल्म की शूटिंग भी रुड़की में ही की. चूंकि कहानी के अनुसार हमें बच्चों को कहीं ले जाने की जरूरत भी नहीं पड़ी और छोटे शहर होने की वजह से हमने बिना किसी शोर शराबे की फिल्म की शूटिंग भी पूरी कर ली.
गट्ट की कहानी
गट्ट की कहानी एक ऐसे बच्चे की कहानी है. जो स्ट्रीट ब्वॉय है. लेकिन उसे पतंग उड़ाना पसंद है. उसका सपना है कि वह दुनिया में सबसे तेज पतंग उड़ानेवाला बन जाये. उसे पता चलता है कि एक स्कूल के छत पर से पतंग उड़ाने में आसानी होगी. एक पतंग है जो सबसे बड़ी पतंग है. उस पतंग का नाम काली है और काली को कांटने का सपना है गट्ट का. तो उस स्कूल की छत तक पहुंचने के लिए स्मार्टली गट्ट जानबूझ कर स्कूल में पढ़ने आता है. वह बहुत सारे झूठ बोलता है. लेकिन स्कूल में एक जगह सत्यमेव जयते का बोर्ड टंगा है. वह उसे देखता है तो सबसे पूछता है इसका मतलब क्या है. सब बताते हैं कि सत्य की जीत होती है. तो उसे भी एहसास होता है और वह अपनी गलती स्वीकारता है. फिल्म में एक आम बच्चे के सपने को पूरा करने के उसके मासूम तरीके को दर्शाया गया है.
बच्चों से एक्टिंग कराना सबसे आसान
मैं मानता हूं कि बच्चों से एक्टिंग कराना सबसे आसान होता है.क्योंकि उनमें कोई भी स्टारी टैंट्रम नहीं होता. उन्हें जैसे बता दो. वे उसे खेल की तरह लेते हैं और भी खेलने लग जाते हैं. और हमारे लिए काम आसान हो जाता है. हालांकि फिल्म की शूटिंग दौरान कई बार रात की शूटिंग वे सो जाते थे. लेकिन फिर भी मुङो बच्चों के साथ बहुत मजा आया. ऑफ स्क्रीन उनकी मासूम सी बातें और शरारतें देख कर आप अलग सी एक फिल्म बना सकते हैं.
भारत में बच्चों की फिल्मों के स्कोप
मैंने अपनी फिल्म गट्ट को राजकोट और अहमदाबाद में दिखाया.वहां के बच्चों से जब प्रतिक्रिया ली तो उन्होंने कहा कि यह पहली फिल्म होगी जो हमें लग रहा है. हमारे लिए बनाई गयी है. वरना हमें राउड़ी राठौर जैसी फिल्में जो बड़ों की फिल्में हैं. पेरेंट्स के साथ उनकी वजह से देखने जानी पड़ती है. उनका कहना था कि चिल्लर पार्टी, गट्ट जैसी फिल्में बननी चाहिए,जो उनके लिए हो. यह सच है कि भारत में विषय बहुत हैं. लेकिन बच्चों के लिए फिल्में कम बनती है. इसके लिए फंड जुटाने में बहुत वक्त लग जाता है. और जब तक किसी बड़े स्टार का साथ न हो. आपको परेशानी होती ही है. लेकिन इसी बीच से रास्ता तो निकालना ही होगा.
नंदिता से जुड़ाव
नंदिता ने हमारा साथ दिया. मैं उन्हें अपनी पहले की फिल्मों में ही लेना चाहता था. उस दौरान से ही उनसे बातचीत होती थी. उस वक्त तो बात नहीं बनी. लेकिन अभी हम गट्ट के माध्यम से साथ काम कर पाये. नंदिता जैसे लोगों की जरूरत है जो बच्चों के लिए ऐसे विषयों पर सोचें और ऐसे विषयों को बढ़ावा दें.
सपने देखनेवाले बच्चों को पसंद आयेगी गट्ट
फिल्म गट्ट सपने देख कर उन्हें पूरा करने के जज्बे रखनेवाले बच्चों को बेहद पसंद आयेगी. उम्मीदन बड़े भी इसे पसंद करेंगे.

राजेश खन्ना जैसे सुपरस्टार का सीक्वल नहीं हो सकता :आशा पारेख , सह अभिनेत्री



राजेश खन्ना साहब का जाना एक बड़ी त्रसदी है. मुङो अच्छी तरह याद है. जब राजेश खन्ना साहब से मेरी पहली मुलाकात हुई थी. उन्होंने मेरी स्माइल की बेहद तारीफ की थी. और कहा था कि मैं अपनी मुस्कान को बरकरार रखूं. यही मेरी सबसे बड़ी खासियत होगी. सो, इसका हमेशा ख्याल रखूं. राजेश साहब को हम सभी काका के नाम से ही जानते थे और मैं भी उन्हें काका ही बुलाती थीं. मैं मानती हूं कि उनके जैसा सुपरस्टार कभी नहीं हुआ था न होगा. आज जो हम सीक्वल की बात करते हैं. मैं मानती हूं कि उनका कोई सीक्वल नहीं हो सकता. वे इकलौते सुपरस्टार थे, जिन्होंने लंबे अरसे तक लोगों के दिलों पर राज किया. सभी जानते हैं और यह झूठ नहीं है कि लड़कियां उन पर इस कदर फिदा थी कि सफेद रंग की गाड़ी थी और वह अगर सिगAल पर रुका करती थी तो लड़कियां आकर उसे चूम लिया करती थीं. कई सेट पर राजेश से मिलने के लिए ऐसी भीड़ लगा करती थी कि फिल्म की शूटिंग रोकनी पड़ती थी. कई लड़कियों ने तो राजेश खन्ना की तसवीरों से शादी कर ली थी. मुङो अच्छी तरह याद है. एक बार शिमला में हम किसी फिल्म के सिलसिले में. मुङो याद है. वहां कितनी लड़कियों की भीड़ लग गयी थी. जबकि पहाड़ी इलाकों में तो हिंदी फिल्मों की पहुंच कम थी. फिर भी वहां राजेश खन्ना इतने लोकप्रिय थे कि लेगों की भीड़ लग जाया करती थी. कोलकाता में भी उनके प्रशंसकों की भीड़ लगी रहती थी. मैं राजेश साहब के बारे में एक बात और कहना चाहूंगी कि उनकी जितनी भी फिल्में रही हैं वे जिंदगी के मायने सिखाती हुई थीं. उनके गानों में दर्द था, फलसफा था. मैं तो कहूंगी जिंदगी के विभिन्न रंग थे. वे जिंदगी की हकीकत से सामना कराते थे. बाद के दौर में भले ही राजेश साहब थोड़े एकांत हो गये थे. लेकिन वे हमेशा से खुशमिजाज रहे. वे वास्तविकता में भी फिल्मों की तरह दार्शनिक बातें किया करते थे. ऋषिकेश दा के पसंदीदा कलाकारों में से एक थे वे. मैंने कहीं किसी मैगजीन में पढ़ा था कि फिल्म बावर्ची के दौरान राजेश साहब वाकई सेट पर सबके लिए तरह तरह के व्यंजन बनाने लग जाते थे. यह सच है कि उनके दौर में स्टारडम की शुरुआत हुई. उन्होंने ही स्टारडम की शुरुआत की.दरअसल, मैं मानती हूं कि राजेश खन्ना उन कलाकारों में से एक थे, जो न सिर्फ दिखने में हैंडसम थे. बल्कि वे बिल्कुल अलग तरह की अदाकारी भी करते थे. वे हास्य फिल्मों में भी लाजवाब थे और गंभीर भूमिकाओं में तो उनका कोई सानी नहीं था.  राजेश खन्ना फिल्मों में आंखें मटकाते तो उधर तालियां बजती. हम सभी सहेलियां खुद उनकी फिल्में देखने के लिए फस्र्ट डे फस्र्ट शो जाया करते थे. वहां जो नजारा होता था. लड़कियां भीड़ लगा कर उनकी एक झलक पाने को बेकरार रहती थीं.किशोर दा राजेश खन्ना के अच्छे दोस्तों में से एक थे. विशेष कर एक दौर में जब वह उनकी आवाज बन गये थे. किशोर साहब ने एक दौर में सिर्फ राजेश साहब को ही आवाज देने की बात कही थी कि वे उन्हें छोड़ कर और किसी को आवाज नहीं देना चाहते. प्यारेलाल जी तो उन्हें अपने लिए सबसे लकी मानते थे. चूंकि जितने भी गीत उन पर फिल्माये गये थे. सभी हिट हुए थे. यही कारण था कि प्यारेलाल के दिल में राजेश खन्ना के लिए खास जगह थी. उन्होंने बताया था कि कैसे किसी भी कांसर्ट में उन्हें जब कहा जाता कि वे आकर किसी एक गाने पर भी परफॉर्म कर दें तो वे तैयार हो जाते थे. और उन्होंने कई बार कांसर्ट में अपने पसंदीदा गायकों के लिए परफॉर्म किया है. वे जैसे ही स्टेज पर आते थे. तालियों की गूंज से थियेटर गूंजने लगता था. वे अपने गानों के चयन में भी बेहद पार्टिकुलर थे. और उनकी पसंद को ध्यान में रखते हुए ही आरडी बर्मन साहब जैसे संगीतकारों ने भी कई बार गीत तैयार किये. राजेश साहब खुद घर ले जाकर तैयार गानों को भी सुना करते थे. मैं यही कहूंगी कि उनकी फिल्में भले ही बाद के दौर में न चली हों. लेकिन उन्होंने जो एक मिसाल तय कर दी थी. उसके आगे जो भी आये. उनके बाद आये. वे हमेशा अग्रणीय रहेंगे और हमारी यादों में हमेशा उनकी बातें. उनका खास अंदाज,उनकी फिल्में रहेंगी.